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श्री कान शतक
राजस्थान ! तुझे है मेरा वन्दन ।
तेरी रजकण मेरे माथे का चन्दन ॥ है सनी वीरता के पानी में माटी ।
अनुपम साहस से लांघी दुर्गम घाटी ॥ हे वीर, प्रसविनी ! धरा तुझे है वंदन ।
मैं शीश झुकाती तुम्हें वीर वर चंदन ॥ ज़ब कवि वीरो की यश गाथाएं गातें ।
सो वीणा के तारों को झनकाते ॥ राणा प्रताप से हुए वीर बलशाली ।
भारत जननी थी जिससे गौरवशाली ॥ इतिहास वीर गाथाओं को दोहराता ।
मानी का मान भरा मन भी झुक जाता ॥ नागौर गौर से अपना रूप निहारो ।
दीवारों को फिर आज संवारो ॥ नागौर आज भी अपना शीश उठाये । है खड़ा अडिग पावन इतिहास छिपाये ॥ तेरी प्रचीरों में लिखी कहानी ।
वीरों की अब तक निश्चल यहां निशानी ॥ वीरों ने तेरे पावन यश को सींचा।
अम्बर तक बढ़ गया रहा नहीं नीचा || जन्मे सेनानी वीर धर्म के सृष्टा ।
तेरी गोदी से उठे सन्त युग दृष्टा ॥ लहराता तेरा आंचल भी पावन है
संतप्त धरा को जैसे सावन है । तेरे आंचल में पावन ग्राम कुचेरा
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● साध्वी श्री चन्द्रप्रभा
होता आया सन्तो का जहां बसेरा । परिवार सुराणा यहां अतिथि सेवक हैं। धर्माराधक स्वयं धर्मप्रेरक हैं | इस कुल में सम्भूमलजी सेठ सुराना
थे सेवाभावी सेवामय था बाना | थे गुण गुणों से वे पहिचाने जाते । उनकी गुण गरिमा के स्वर लोग सुनाते वह प्रतिक्रमण पौषध के थे अभ्यास
जिनके घर में लक्ष्मी थी जैसे दासी ॥ श्री बींजराज से पुत्र रत्न को पाकर
हर्षित थे सम्भू पुत्रवधू को पाकर अंजनी अंजना सी ही थी गुणशाली
जिसके आनन पर थी संयम की लाली शुचि, शील, सत्य, सन्तोष जिसे थे प्यारे
थे लाज भरे दोनों नयनों के तारे दो पुत्र, पुत्रियां तीन इन्होंने पायी
जैसे वे सब उनकी ही थी परछाई फूसालाल कटंगी के अधिवासी
पर कालूराम हो गये स्वर्ग निवासी जेष्ठापुत्री सुन्दर श्री सुगना बाई ।
लोक छोड़ सुरपुर की राह बनाई ॥ संवत उन्नीस सौ अड़सठ थी मनभावन
था मास भाद्रपद कृष्ण अष्टमी पावन कान्हाबाई शुभ काल लब्धि ले आई श्री बींजराज के घर में बजी बधाई
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