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________________ हैं। मैने पूर्व में भी कहा था और आज भी कह रही हूं कि तुम्हें एक ऐसी सुयोग्य शिष्या मिलेगी और एक वर्ष में सभी कार्य सिद्ध हो जायेंगे, और वही हुआ। वि.सं. १९९४ अगहन बदी ग्यारस-रविवार को नोखा ग्राम में पूज्य गुरुवर्या महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म.सा. "अर्चना” की दीक्षा हुई। महासती श्री कानकुंवरजी म.सा. आपकी बड़ी गुरु बहन थी। पूज्य महासतीजी श्री सरदारकुंवरजी म.सा. ने न केवल जगत् को, वरन समग्र अध्यात्मजगत् को पूज्य गुरुवर्या श्री उमरावकुंवरजी म.सा. “अर्चना” के रूप में एक ऐसा परम भास्वर, उज्ज्वल, अखण्ड दीप्तिमय रत्न दिया, जिसके दिव्य आलोक में से श्रमण संस्कृति नि:संदेह विभासित प्रकाशित है। आप श्री को गुरुवर्या श्री का साया केवल आठ वर्ष तक ही मिला। लेकिन ये आठ वर्ष गुरुवर्या श्री के मन और जीवन पर अमिट छाप छोड़ गए। एक-एक पल की स्मृतियां हृदय की मन्जूषा में रत्न बनकर जगमगा रही हैं। मैंने उन स्मृतियों में खोई आंखों में आर्द्रता प्रत्यक्ष देखी है। महासती श्री सरदारकुंवरजी म. चरित्रनायिका संवत् २००३ मिगसर सुदि तीज को संथारे के साथ डेह ग्राम में स्वर्गस्थ हुई। उन्होंने अपनी देह भले ही मिट्टी को सौंप दी, लेकिन सद्गणों की महक आस-पास आज भी महसूस होती है। मैंने उस अद्भूत देह और मन के सौन्दर्य की स्वामीनी महासती श्री सरदारकुंवरजी म.सा. को नहीं देखा लेकिन उनकी महानता को पूज्य गुरुवर्या श्री के मुखारविन्द से सुने एक-एक शब्द में अनुभव अवश्य किया हैं। डेह ग्राम में आखिरी घटना बहुत ही आश्चर्यजनक घटी थी। जिस स्थान पर अग्नि संस्कार हुआ, संघ के कुछ सदस्य यह देखकर हैरान हो गए कि जहां पर संस्कार किया गया था, वहीं पर एक अखबार के नीचे कीड़ी नगरा चल रहा। अंगारों से न कागज जला और न ही कीड़ी। इस दिव्य घटना को देखकर अनेक लोगों ने दांतों तले अंगली दबा दी। आज भी अनेक लोग मनौति मनाते हैं। उनकी कामनाएं जब पूर्ण होती है तो उनके अंतिम संस्कार से जुड़ी दैविक घटना सहज विश्वसनीय बन जाती है। महान् आत्माओं के सम्बन्ध में पूर्ण रूपेण लिखा जाय यह संभव नहीं हैं। उनकी विनम्रता, सहज धैर्य, निर्मल दृष्टि और संयम निष्टा के सम्बन्ध में पूज्य गुरुवर्या श्री समय समय पर अनेक प्रसंग बताते हैं, जिन्हें सुनकर मन में आश्चर्य के साथ आह्लाद होता हैं। उनके जैसी दिव्य देहयष्टि और मन दुर्लभ है। जब वे गाते थे तो ऐसा लगता था मानों कोयल कुहुक रही हैं। अन्ततः उनकी तुलना संगमरमर की एक ऐसी प्रतिमा से की जा सकती है, जिसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का अद्भुत और जीवन्त तेज था। वह आज भी अपनी परम्परा की प्रत्येक साध्वी में प्रतीक रूप में विद्यमान हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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