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________________ मधुकर वाणी शुभ कर्म करने के लिए उच्चकुल अथवा उच्च जाति का होना मनुष्य के लिए आवश्यक नहीं है। हरिकेशी मुनि जाति के चाण्डाल थे और भगवान् महावीर उच्चकुलीन। किन्तु जिस प्रकार महावीर ने आत्मकल्याण किया उसी प्रकार हरिकेशी मुनि ने भी। दोनों में क्या फर्क रहा? शास्त्र कहता है जाति से कोई पतित नहीं होता। पतित वह है जो चोरी, व्यभिचार, ब्रह्न हत्या, भ्रुणहत्या, सुरापान इत्यादि दुष्ट कृत्यों को करता है और उनको गुप्त रखने के लिए बार-बार असत्य भाषण करता है। धर्म का जाति और कुल से कोई सम्बंध नहीं होता। सच्चा धर्म तो शुद्ध हृदय में पाया जाता है। धर्म अन्तरात्मा में पनपता औरविकसित होता है अत: धर्म आन्तरिक है। सच्चे धर्म का आधार उदारता, विश्वस्तता, मानवता तथा दयालुता की भावनाएँ ही है। धर्म संसार के प्रत्येक जीव पर करुणा करना सिखाता है, चाहे वह अमीर हो, गरीब हो, अधूत हो या मनुष्य न होकर कुत्ता, बिल्ली अथवा अन्य प्राणी क्यों न हो। __ जिस व्यक्ति की अपनी जिह्वा-इन्द्रिय पर नियंत्रण नहीं होता उसमें तथा पशु में कोई अन्तर नहीं होता। पशु के सामने जब कोई वस्तु रख दी जाए वह फौरन उसमें मुँह डाल देता है। इसी प्रकार अनेक व्यक्ति ऐसे होते है जो खाद्य-अखाद्य का विचार किये बिना रात्रि में भी जब तक निद्राधीन नहीं हो जाते कुछ न कुछ खाते रहते है और प्रात:काल शय्या त्याग ने से पूर्व ही चाय आदि से खाना-पीन प्रारम्भ कर देते है। ऐसी स्थिति में पशुओं में और उनमें क्या फर्क मनना चाहिए? शरीरिक बल कितना भी क्यों न हो पर उसके साथ मनोबल अत्यन्त उच्च होना चाहिए। मनुष्य को संसार भ्रणण से विमुक्ति दिलाने वाला मनोबल ही होता है। मन की न्यूनतम दर्बलता भी सहस्रशः अशुभ फलो को उत्पन्न कर देती है। अशुभ भावना से अनन्तानन्त अशुभ कर्म परमाणुओं का तथा शुभ भावनाओं से शुभ परमाणुओं का बंध होता है और इन भावनाओं की उत्पत्ति का मुख्य कारण हमार मन ही है। • युवाचार्य श्री मधुकर मुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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