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________________ स्वामीजी का हृदय बहुत ही सरल था। उनके मन में कही घुमाव-फिराव नहीं, दुख-छिपाव नही था। जैसे भीतर मन में भाव, कहीं बाहर वचन में भी थे। स्वामीजी के मन-वचन की सरलता देखकर आश्चर्य तो नहीं होता किन्तु उनके प्रति आदर होता है, श्रद्धा भाव उमड़ पड़ता है। स्वामी जी की सहनशीलता भी गजब थी। उनके साहस और सहिष्णुता की अनेक घटनाएं है। उनका कहना था-"तुम्हारा मन यदि साहस से भरा है, दुःख और कष्ट से जुझने को तैयार है, तो तुम्हारा दुःख आधा हो जाता है और भय चौगुना।” . सहिष्णुता, धैर्य और परीषह के विषय में उनका कहना था-पत्थर हजारों टांकी सहता है तब महादेव बनता है। आदमी अगर कष्ट नहीं सहे तो वह आदमी कैसे बनेगा। फिर साधु तो सहनशीलता से ही साधु होता है। मन में धीरज न हो, सहनशीलता न हो, परिस्थिति से घबराता हो, वह आदमी साधु नहीं बन सकता। मौत का मार्ग तो सिर पर कफन बांधने चलने का है-मौत हमारे साथ-साधु जीवन में कष्ट आये, इसमें कोई खास बात नहीं, खास बात तो यह समझनी चाहिये कि जो साधु जीवन धारण करके भी कष्ट नहीं उठाते। गृहस्थ को कष्ट सहे बिना धन नहीं मिलता, साधु को कष्ट सहे बिना मोक्ष कैसे मिलेगा?" स्वामी जी पर दुःख कातर थे। अपने गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमल जी म. की रूग्णता के समय आपने दिन-रात सेवा की। इस सेवा में आपको खाना-पीना, बोलना, सोना आदि किसी भी प्रवृत्ति में रस नहीं आया। आपको दूसरों की पीड़ा स्व-पीड़ा जैसी लगती थी। स्वामी श्री हजारीमल जी म. की अस्वस्थता के समय भी स्वामीजी की सेवाभावना उल्लेखनीय रही। इसके अतिरिक्त जो भी मुनि उनके पास रहते और जब उनकी सेवा का प्रसंग आता तो रुग्ण मुनि की वेदना की अनुभूति उन्हें कुरेदती रती। वे -, अन्य की बीमारी अपनी समझते। स्वामी जी का स्वर बहुत मीठा था। जब वे भजन स्तवन आदि गाते थे तो स्वयं तो तन्मय हो ही जाते, श्रोताओं को भी तन्मय बना देते थे। अवकाश के क्षणों में या तो वे माला फेरा करते या भजन स्तवन, स्त्रोत आदि गुनगुनाया करते थे। उन्हें आलसी की भांति पड़ा रहना स्वीकार नहीं था। अध्ययन की दृष्टि से स्वामी जी सदैव जागरूक रहे। दीक्षोपरातंत प्रारंभिक अध्ययन समाप्त कर आपने आगमों का गहन अध्ययन किया। स्वामी जी ने ज्योतिष विद्या का भी गहन अध्ययन किया। आपका ज्योतिष ज्ञान अनुभव पूर्ण था। वे प्रथम तो फटाफट बताते नही, किन्तु उसका विचार कर लेते, यदि बताते तो सिर्फ ग्रह गति कुण्डली के आधार पर ही नही, किन्तु उसे व्यावहारिक बुद्धि से सोचकर बताते, ज्योतिष को वे जीवन में उपयोगी विद्या मानते थे किन्तु विश्वास और विवेक के साथ। भाषा ज्ञान की अपेक्षा कला में आपकी रूची अधिक थी। बाल्यकाल से ही जब आपने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया तो उनमें कुछ सहज सुघड़ता और सौष्ठव था। आगे जाकर आपने अक्षर लिपि और अच्छी सुधार ली। आपकी लिपि कला में सौन्दर्य के साथ शद्धता का मीठा कांचन संयोग था। स्वामी जी का जीवन मधुरता से ओतप्रोत सर्वतोभद्र था। आपके जीवन का कोई भी कोना ऐसा नहीं जो किसी दोष से स्पष्ट हो। आपके साधु जीवन की सौरभ दूर दूर तक महक रही है। आपका जीवन समस्त साधकों के लिए प्रेरणादायक हैं। (२९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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