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________________ तथा उनके प्रति गहरी भक्ति भावना रखते स्वामीजी के प्रवचन सुनने आते । परन्तु तिंवरी में प्राय: श्रावक स्वामीजी संप्रदाय के अनुयायी थे थे । अतः सहज ही था कि श्रोता अधिक से अधिक संख्या स्वामीजी ठहरे समतायोगी, शान्ति, समन्वय और उदारता की प्रतिमूर्ति ! बाबाजी पूर्णमलजी महाराज की साधना व चर्या, उनकी विभिन्न योग्यता आदि को देखते हुए उनको नाराज करना या किसी प्रकार उनका अपमान जैसा व्यवहार होना स्वामीजी को कतई पसन्द नहीं था । स्वामीजी ने तिंवरी निवासियों को सम्बोधित करके कहा- “ श्रावको ! धर्म समता में है, कलह में नहीं। जब तक बाबाजी तिंवरी में विराजेंगे उन्हीं का व्याख्यान होगा और आप सब उनका व्याख्यान सुनने प्रतिदिन जायेंगे।” कुछ लोगों ने एक तुनका भी छोड़ दिया था - " एक गुफा में दो सिंह नहीं रह सकते । " उदारमना स्वामीजी ने सहज भाषा में उत्तर दिया- “एक गुफा में भले ही दो सिंह नहीं रह सकें, पर समभाव के साधक अनेक मत एक क्षेत्र में रह सकते हैं क्योंकि उनका लक्ष्य व जीवन ध्येय एक होता हैं ।” इतनी कटु उक्ति का कितना मीठा उत्तर था । बाबाजी जब तक तिंवरी में रहे उन्हें यह अनुभव भी नहीं होने पाया कि वे आपके स्ने, सद्भाव और सौमनस्य से इतने गद्गद् होकर रहे कि अपने भक्तों के क्षेत्र में नहीं हैं। उदारताः समयज्ञता स्वामीजी सत्य के प्रति जितने एकनिष्ठ व अविचल थे उतने ही समयज्ञ भी थे। आचार्य सोमदेव - समयज्ञो हि सर्वज्ञः अन्यथा विज्ञोपि अवज्ञायते जो समय को जानता है, पहचानता है, वह वास्तव में सब कुछ जानता है। जो समयज्ञ नही हैं, वह विज्ञ भी है तो भी लोगों में अवज्ञा व अपमान को प्राप्त होता हैं। स्वामी श्री हजारीलाल जी म. लोक व्यवहारज्ञ व समयज्ञ थे। समय की नाड़ी को पहचानने में बड़े चतुर व उचित व्यवहार करने में कुशल थे। वि.सं. २०१४ का प्रसंग है। आपश्री का चातुर्मास जोधपुर सिंहपोल में था। देश में हरिजन मंदिर प्रवेश की हलचलें जोरों पर थीं। कुछ विघ्न - सन्तोषी सज्जनों ने दो हरिजन बन्धुओं को उकसाया, कि देखो ये मुनि, तुमको स्थानक में प्रवेश नहीं करने देते हैं। उकसाये हुए भोले हरिजन बन्धु विग्रह बढ़ाने या विवाद को सार्वजनिक रूप देने के इरादे से सिंहपोल स्थानक के बाहर आकर खड़े हो गये। कक्ष तक भीतर गये, पर आगे जाने से स्वयं ही ठिठक गये। स्वामीजी ने उनकी मुख - मुद्रा व रहन-सहन देखकर समझ लिया, हाथ के संकेत से उनको अन्दर आने की सूचना दी। दोनों ही हरिजन सहमे-सहमे स्वामीजी के पास आये और बोले - “महाराज ! हम हरिजन हैं, हमें मंदिर प्रवेश करने से रोका जाता है। हम आपके दर्शन करने भी यहां आना चाहते हैं, किन्तु हमें लोग रोक-टोक करते हैं। " Jain Education International (२४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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