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________________ स्वामीजी ने संस्कृत, प्राकृत, आगम, चूर्णो, टीका, भाष्य, काव्य, छन्दःशास्त्र व ज्योतिष आदि का गंभीर अध्ययन किया। अपने समय में वे आगमों के एक तलस्पर्शी विज्ञाता, विचक्षण विद्वान माने जाते थे। वे उग्रक्रियावादी नहीं थे तो कोरे ज्ञानवादी भी नहीं थे। उनमें ज्ञान-क्रिया का सुन्दरतम संगम था। स्वामीजी श्री जोरावरमलजी महाराज “यथानाम तथागुण" इस उक्ति के अनुसार सचमुच जोरावर थे। उनके चेहरे पर चमकता हुआ ओज था। किसी भी व्यक्ति की हिम्मत एकदम उनके सामने बोलने की नहीं होती थी। यद्यपि उनका विचरण राजस्थान में ही हुआ था फिर भी उनका वर्चस्व जैन व जैनेतर समाज में सर्वत्र छाया हुआ था। स्वामीजी सही बात को ही पकड़ते थे, पर उनकी पकड़ बहुत सुदृढ़ होती थी। आगम के आधार पर तर्क की कसौट पर कसकर वे विरोधियों को ऐसा करारा जबाब देते कि विरोधी व्यक्ति स्वयमेव उपशान्त हो जाते। स्वामीजी सुधारवादी भी थी। अनेक स्थानों पर उन्होंने परम्परा से प्रचलित अनेक कुप्रथाओं का निवारण किया। बारात में रात्रि-भोजन, ढोल पर कुलीन औरतों का नाचना, विवाह शादियों में औरतों का गन्दे गीत गाना आदि कुप्रथाएं स्वामीजी को बहुत अखरती थी। अछूत जाति के प्रति भी स्वामीजी की बड़ी हमदर्दी थी। हरिजनों को उच्छिष्ट भोजन देने का भी वे सख्त विरोध करते थे। साधु-समाज में क्रिया की ढिलाई स्वामीजी को बिलकुल नहीं सुहाती थी। चाहे अपनी सम्प्रदाय के ही, साधु क्यों न हो, जिनमें वे क्रिया की ढिलाई देखते तो उन से वे अपना सम्पर्क कभी नहीं रखते थे। इस बात को लेकर स्वामीजी साधु-समाज में कुछ कठोर प्रकृतिवाले भी माने जाते थे। स्वामीजी में एक खास विशेषता यह थी कि यदि साधु समाज की गलत प्रवृत्तियों को देखकर श्रावक समाज में उन साधुओं के प्रति श्रद्धा का वातावरण बन जाता तो वे समाज में पुनः उनकी जाजम जमाने में भी कभी नहीं चुकते थे। स्वामीजी जैन आगमों के गहन अभ्यासी थे। आगम ज्ञान के प्रसार हेतु उनके मन में बड़ी तीव्र उत्कंठा थी। अनेक बार कहते थे-आगम ज्ञान ही आत्म-ज्ञान की कुंजी है। उनके सुयोग्य शिष्य युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी उनकी इस अन्तर भावना को सफल बना दिया हैं। जैन आगमों का सरल हिन्दी अनुवाद विवेचन सर्वसाधारण को सुलभ करा दिया हैं। स्वामीजी के तीन शिष्य हुए-स्वर्गीय स्वामीजी श्री हजारीमलजी महाराज, पूज्यगुरुदेव उपप्रवर्तक स्व. स्वामीजी श्री ब्रजलालजी महाराज व पण्डित रत्न युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज। स्वामीजी का ४२ वर्ष का संयमी जीवन रहा। अन्त में उन्होंने भंवाल में समाधिमरण प्राप्ति किया। - श्री 'जोरावर' सन्मुनि गुरुवर् वन्दे सदा भावतः। (२२) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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