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________________ श्री जयमल जी महाराज ने उसे खोल दिया। बीकानेर से आप नागौर होते हुए जोधपुर पहुंचे। इस समय तक सोजत श्री संघ ने मुनि श्री रघुनाथ जी महाराज को आचार्य पद की चादर दे दी थी पर नागौर, मेड़ता व जोधपुर आदि श्री संघों से कोई राय नहीं ली गई थी। मुनि श्री जयमल जी के जोधपुर पहुंचने से पहले पूज्य श्री रघुनाथ जी महाराज भी जोधपुर पहुंच गए थे। नागौर, मेड़ता व जोधपुर श्री संघ के आगेवान श्रावकों एवं मुनि श्री कुशलचन्द जी महाराज के बहुत आग्रह करने व समझाने पर भी संघ - एकता के लिए मुनि श्री जयमल जी ने आचार्य-पद लेने से बिल्कुल इन्कार कर दिया। वे एक मुनि के रूप में ही पूज्य रघुनाथ जी म.सा. को वंदन करने गए। पूज्य रघुनाथ जी महाराज ने उन्हें वंदन करने से पहले ही हृदय से लगा लिया, पाट पर ले गए और चतुर्विध संघ के समक्ष अपने हाथों से आचार्य पद की चादर फैलाकर स्वयं ओढ़ते हुए उनको भी ओढ़ा दी। इस तरह संवत् १८०५ की अक्षय तृतीया के शुभ दिन आप पर भी आचार्य पद का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व आ पड़ा, जिसे आपने यावज्जीवन पूर्ण निष्ठा से निभाया और संधैक्य एवं जिनधर्म का चरम विकास किया। मेवाड़ में देवगढ़ नरेश यशवन्तसिंह जी आपके अनन्य भक्त बने तथा शिकार खेलने का त्याग किया। देलवाड़ा के राजा रघुनाथराय, जोधपुर-नरेश विजयसिंह जी ( महाराजा अभयसिंह जी के बाद), इन्दौर-नरेश मल्हारराव, जयपुर नरेश, शाहपुर नरेश, रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रसिद्ध संत श्री रामचरण जी महाराज आदि कई राजा-महाराजाओं एवं विद्वान साधुओं ने आपके ज्ञान का लाभ उठाया, आपसे प्रभावित हुए और आपके भक्त, अनुयायी बन गए। आपने विभिन्न साधु-सम्मेलनों में सम्प्रदायों को मिटाकर संघैक्य के लिए भी अनेक प्रयत्न किए। आपके पास इक्यावन मुमुक्षुओं ने दीक्षा ली। आपका अन्तिम समय लगभग बारह वर्ष अस्वस्थता एवं अशक्तता के कारण स्थिरवास की स्थिति में नागौर में बीता। आप एक महान् संत ही नहीं, अच्छे कवि भी थे। आपकी सैकड़ों काव्य-रचनाएं इतस्ततः उलब्ध हैं। सोलह वर्ष तक आपने एकान्तर तप किया और पचास वर्षों तक आप लेटकर नहीं सोए । विक्रम संवत् १८५३ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी (नृसिंह चौदस ) के दिन एक माह के संथारे के बाद आपने नागौर में अट्टासी वर्ष की आयु पाकर अपनी इस नश्वर देह का त्याग कर दिया। नागौर नगर तभी से जैनानुयायियों के लिए पवित्र तीर्थ स्थल बन गया। आपके पट्टधर शिष्य पूज्य श्री रायचन्द्र जी भी प्रतिभासंपन्न एवं ऊर्जस्वल व्यक्तित्व के धनी थी । आचार्य श्री रायचन्द्र जी महाराज जोधपुर निवासी श्री विजयराज जी धाड़ीवाल की धर्म-पत्नी नंदादेवी की कुक्षि से आसोज शुक्ला एकादशी संवत् १७९६ को आपश्री का शुभ जन्म हुआ। आपको वैराग्योत्पत्ति उस समय हुई जब आप विवाह के लिए विवाह - पूर्व आयोजित बन्दोलों के जीमण जीम रहे थे । अठारह वर्ष की संधिवय प्रवेश करते ही संवत् १८१४ तिथि आषाढ़ सुदी एकादशी के दिन आपकी दीक्षा स्वामी जी श्री गोवर्धनदास जी महाराज के पास पीपाड़ शहर में समारोहपूर्वक सम्पन्न हुई थी। आपके पिता श्री ने एवं आपकी बड़ी मातुश्री ने भी आपके दीक्षा - प्रसंग से प्रभावित होकर आपके साथ ही दीक्षा-व्रत स्वीकार कर लिया था । पूज्य श्री जयमल जी म. ने आपकी विद्वत्ता, प्रतिभा, संयम में दृढ़ता एवं तप में प्रवणता देखकर संवत् १८४९ की अक्षयतृतीया (वैशाख शुक्ला तृतीया) के शुभ दिन आपको अपना युवाचार्य घोषित कर दिया। (१६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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