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के अनेक छलछंद तथा पैसों के लोभी मां-बापों से कच्ची उम्र के बच्चों की खरीदी आदि ऐसे-ऐसे घृणित कार्य उन्होंने देखे कि उनके मन की अशान्ति घटने के बजाय बढ़ने लगी। उनकी आत्मा सत्यधर्म की खोज में तड़पने लगी।
इन्हीं दिनों आचार्य श्री धन्ना जी ग्रामानुग्राम विचरण करते वहां पधारे। उनका तप-त्याग जबरदस्त था। बेल-बेले की तपस्या, पारणे में चार विगय का त्याग; अपवाद में घृत में तली पुड़ी के अतिरिक्त घृत का भी त्याग था। भूधर जी शान्ति की खोज में उनके पास भी गए। यहां गादी न थी, पैसों की मारामारी न थी, छल-प्रपंच नहीं था और किसी तरह का लोभ भी नहीं था। भूधर जी अत्यन्त प्रभावित हुए। कई दिन आपके साथ रहे। उनकी आत्मा को शान्ति मिली। आपने पूज्य धन्ना जी के पास सं. १७७७ में शुद्ध आहती दीक्षा अंगीकार की। एक मान्यतानुसार इनकी दीक्षा सं. १७५१ फाल्गुन शुक्ला पंचमी को हुई।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् आप ज्ञान व संयम की आराधना में लीन हो गए। आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। अपने गुरु की सेवा भी मन लगाकर की। गुरुदेव ने इन्हें तपाराधना का महामंत्र सिखाया।
आयावयाही चयसोगुमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं।
छिन्दाहि दोसं विणाएज्ज रांग, एवं सुही ही हिसि संपराए। -“आतापना लो (तप करो) और सुकमारता त्यागो; इच्छाओं का दमन करो ताकि दुःख का स्वयं दमन हो। द्वेष का छेद करो और राग का विनाश करो; इस प्रकार तुम संसार में सच्चे सुखी बन सकते हो।"
श्री भूधर जी महाराज ने उग्र तपाराधन किया। भंयकर गर्मी में वे सूर्य की आतापना लेते, कड़कड़ाती सर्दी में निर्वस्त्र (चद्दर रहित) रहते। उग्र तपस्वी के नाम से आप शीघ्र विख्यात हो गए। आचार्य श्री धन्ना जी ने आपको सुयोग्य जानकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
आचार्य-पद प्राप्ति के पश्चात् एकदा आप कालू ग्राम पधारे। साधुमार्गी, सरावगी एवं अन्य सम्प्रदायों के बीच समझौता करा कर एकता स्थापित की। सरावगियों (दिगम्बरों) के संशयों को सचोट तर्क-विधान से दूर किया।
पूज्य भूधर जी महाराज अत्यन्त क्षमाशील थे और अपकार के बदले भी उपकार करना ही धर्म समझते थे। काल ग्राम में एक बार जब आप नदी की बाल-रेत में सर्य-ताप एवं भंयकर ऊष्ण-बाल की आतापना ले रहे थे कि उनके एक विद्वेषी नारायण पंडित ने एक जाट के द्वारा मुनि श्री के सिर पर लकड़ी की जड़ी हुई मूठ से घातक प्रहार करवाया। संत भूधर जी लहुलुहान हो गिर गए, जाट भाग गया, पंडित पकड़ा गया। यह नारायण पंडित काशी से पंडित बन कालू आए थे। प्रारंभ में उनके आख्यान व व्याख्यान में लोगों की उपस्थिति अच्छी थी, भेट-दक्षिणा भी भरपूर आती थी, मान-सम्मान भी था पर श्री भूधर ज
जी के काल आने के बाद यह समाप्त हो गया। जनता भधर जी की ओर आकर्षित हो गई। पंडित तिलमला उठा, भूधर जी से शास्त्रार्थ करने गया पर अपनी हंसी उड़वाकर आया, तब से उसके मन में प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी। पूज्य भूधर जी पर प्रहार करवाने के पीछे यही प्रतिशोध था।
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जयध्वज ७१९ पृष्ठ। युवाचार्य मधुकरमुनि-स्मृति-ग्रंथ-१९ ।
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