SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस समय दिल्ली सल्तनत का फरमान था कि किसी मुंहपत्ति-धारी साधु को कहीं कोई कष्ट न हो; जो उन्हें कष्ट दें, उन्हें कड़ी सजा दी जाए। नारायण पंडित को भी भयंकर सजा दी, कालू हवलदार ने। पूज्य भूधर जी महाराज जब होश में आए और उन्हें पता चला तो उनका दयालु हृदय द्रवि हो गया। आपने कहा- “नारायण पंडित को छुड़ाओं, अन्यथा मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा।” गांव वालों के दबाव से एवं उनकी सम्मिलित जिम्मेदारी पर नारायण पंडित को छोड़ दिया गया। यहीं से पंडित जी का हृदय-परिवर्तन हुआ और कालान्तर में यह काशी का पंडित पूज्य श्री भूधर जी म.सा. का प्रिय शिष्य मुनि श्री नारायणदास बना। पूज्य भूधर जी महाराज का एक चातुर्मास दिल्ली में हुआ था। आपके ज्ञान, प्रतिभा एवं प्रवचन-पटुता से दिल्ली में जैनधर्म की पताका फहराने लगी। जोधपुर, जयपुर आदि मारवाड़ के कई नरेश जब भी दिल्ली आते तो पूज्य भूधर जी के दर्शनार्थ जाते, व्याख्यान सुनते। इन्हीं नरेशों ने बादशाह मुहम्मदशाह को पूज्य भूधर जी का भक्त बनाया तथा शाहजादा तो कई बार व्याख्यान सुनने भी गया। दिल्ली के चातुर्मास में आपने सांवत्सरिक पर्व पर समस्त प्रकार की हिंसा बन्द करवाई, कत्लखाने बन्द रहे । यहीं श्रेष्ठीवर्य श्री सूरजमल जी ने दीक्षा धारण की। आचार्य श्री के प्रवचन प्रभावशाली एवं सार्वभौम होते थे। इन प्रवचनों में जो रसानुभूति होती, उससे लोगों में धर्मभावना होती। जैन समुदाय के अतिरिक्त जैनेतर समुदाय भी इन प्रवचनों में आते। बहुत से राजा, महाराजा, दीवान, श्रेष्ठीवान आते। शहजादा एवं बादशाह भी आते। अपने समुपदेशों से आपने अनेक ठाकुरों, जमींदारों, जागीरदारों, राजाओं व महाराजाओं को मांस-मदिरा से विरक्त किया, उनके नाच - मुजरे छुड़वाए, शिकार के त्याग करवाए और इस तरह जैनधर्म को दीप्तिमान किया । आपके नव शिष्य थे। सभी शिष्य प्रतिभा सम्पन्न तेजस्वी एवं धर्म प्रभावक थे। श्री नारायण दास जी, श्री रूपचन्द जी, श्री गोरधन जी, श्री जगरूप जी, श्री रतनचन्द जी, श्री रघुनाथ जी, श्री जेतसी जी, श्री जयमल्ल जी, श्री कुशलो जी - इन नवशिष्यों में चार शिष्य अत्यन्त ही विख्यात एवं गरिमामय हुए । इन चारों का विवरण निम्न दोहे में इस प्रकार मिलता हैं धन रघुपति, धन जेतसी, धन जयमल, कुशलेश । ९ चारों शिष्य तणा, चावा देश-विदेश ॥ विक्रम संवत् १८०४ विजयादशमी के दिन आपने नश्वर देह से मोह - ममत्व त्याग कर समाधिपूर्वक पण्डितमरण से शरीर त्याग दिया। आप सही अर्थों में कर्मवीर, क्षमाशील एवं धर्मवीर थे। आपके बाद श्री रघुनाथ जी एवं श्री जयमल जी दोनों ही आचार्य रहे । आचार्य श्री रघुनाथ जी महाराज मारवाड़ के सोजतनगर में एक धर्म प्रेमी परिवार रहता था। बल्लावत गौत्रीय बाफणा थे तथा एक प्रसिद्ध व्यापारी थे। उनकी मर्यादापुरूषोत्तम 'राम' को स्वप्न में देखकर सोमादे ने गर्भ धारण १७६६ को इनके घर एक पुत्ररत्न ने जन्म लिया । स्वप्नाघार पर शिशु का नाम रघुनाथमल रखा गया। ९. हमारा इतिहास - पृष्ठ १९९ । Jain Education International (ट) For Private & Personal Use Only परिवार के मुखिया शा. नथमल जी धर्मपत्नी का नाम था सोमादेवी । किया । माघ शुक्ला पंचमी संवत् www.jainelibrary.org
SR No.012025
Book TitleMahasati Dwaya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
PublisherSmruti Prakashan Samiti Madras
Publication Year1992
Total Pages584
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy