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आज इन बाईस-सम्प्रदायों में से कितनी और कौन-कौन सी सम्प्रदाएं विद्यमान हैं, यह कहना बड़ा कठिन हैं। अनेक पट्टवलियों में जिन पांच शिष्यों की परम्पराओं का उल्लेख मिलता हैं, उनके नाम हैं-(१) श्री धन्ना जी महाराज, (२) श्री मूलचंद जी महाराज, (३) श्री छोटे पृथ्वीराज जी महाराज, (४) श्री मनोहरदास जी महाराज और (५) श्री रायचंद जी महाराज। इनके अतिरिक्त दक्षिण एवं पंजाब की कई परम्पराएं भी विद्यामान हैं।
श्री धर्मदास जी के प्रमुख शिष्य श्री धन्ना जी ने मारवाड़ा में जिन-धर्म का खूब प्रभाव फैलाया। श्री धन्नाजी के प्रमुख शिष्य श्री भूधर जी हुए। आचार्य श्री धन्ना जी महाराज
सांचोर के कामदार श्री बाघ जी मेहता के सुपुत्र थे, श्री धनराज जी। बचपन बीतने पर आपकी सगाई हुई पर वैराग्योत्पत्ति के कारण आप आत्म-ज्ञान की खोज में यतियों की एक शाखा “पोतिया बंद" के प्रभावी क्रियाधारी श्रावक श्री पूनमचंद जी गुरांसा के पास आए। धर्म अभ्यास चला पर उन्हें लगा कि जिस आत्मधर्म की खोज में वे हैं वह यह धर्म नहीं हैं। उस समय आचार्य धर्मदासजी गांव-गांव में धर्मप्रचार कर रहे थे। धनराज को जैसा सिखाया गया था, उसी के अनुरूप वे इन साधुओं के विरोधी थे
और उन्हें ढोंगी-पांखडी मानते थे पर पोतियाबंद-पंथ की यह दलील कि 'श्रावकाचार के आगे कुछ नही हैं'-उन्हें मान्य नहीं था। जब धर्मदास जी धनराज जी के गांव पहुंचे तो धनराज जी से नहीं रहा गया, वे भी व्याख्यान सुनने चले गए। व्याख्यान के पश्चात् उनका आचार्य जी से वार्तालाप हुआ। धनराज जी ने अपनी मान्यताएं जो उन्हें सिखाई गई थीं, आचार्य जी के सम्मुख रखीं। आचार्य जी ने उनको सत्यधर्म समझाया। आप समझ गए और आज्ञा लेकर आपके पास संवत् १७२७ में दीक्षित हुए। आपने तप पर अधिक बल दिया। एकान्तर तो चालू ही रखा; बेले, तेले और इससे भी अधिक कठिन तप किया।
वर्षों तक आप धर्मदास जी के साथ रहे फिर आपकी योग्यता, प्रतिभा एवं ज्ञान-दर्शन चारित्र की श्रेष्ठता देखकर आपको स्वतंत्र धर्म-प्रचार तथा शिष्य-परिवार करने की स्वीकृति प्रदान कर दी गई। पंजाब क्षेत्र के प्रभावी आचार्य श्री अमरसिंह जी से भी आपकी भावभीनी गहरी मुलाकात जोधपुर में आसोप की हवेली में हई। दोनों की विचारणाओं का अंतर मिटा और दोनों ने एक साथ गोचरी कर भविष्य में एक ही गच्छ में रहने का निर्णय लिया। दोनों आचार्यों को मिलाने पर जोधपुर राज्य के दीवान भण्डारी खींवसी जी का बड़ा हाथ था। संवत् १७८४ की चैत्र शुवला अष्टमी के दिन आपने काल-धर्म समीप जानकर 'समाधि-मरण' की इच्छा प्रकट की। सभी शिष्यों ने कहा-“आप स्वस्थ हैं, ऐसा क्यों कहते हैं? आपने फरमाया-“तुम लोग नहीं जानते, मैं जान गया हूँ। अब तो यह थम्भा अन्न खाए तो धन्ना अन्न खाए।"
उन्होंने स्वयं ही संधारा ग्रहण किया। विरोधी भला उन्हें यहां भी क्यों छोड़ते? भड़का दिया राज्य-कर्मचारियों को कि यह तो आत्महत्या है। राज्य-कर्मचारी दौड़े हुए स्थानक आए। उनके पूछने पर सभी प्रश्नों का सन्तोषजनक समाधान कर दिया गया। आचार्य धन्ना जी ने कहा-"वैसे भी आज से मेरे बेले की तपस्या हैं, मुझे अब इस देह से कोई मोह नहीं हैं। मैं समाधि ले रहा हूँ। चैत्र शुक्ला दशमी को दूसरे प्रहर इस नश्वर-देह का त्याग कर मेरा आत्मा अन्यत्र चला जाएगा।"
संवत् १७८४ में चैत्र शुक्ला दश्मी के दिन जैसा कि आचार्य श्री ने कहा, उनकी आत्मा का परलोक गमन हुआ। वस्तुत: वे एक तपोधनी एवं पहुंचे हुए सिद्ध-सन्त थे। आपने अनेक शिष्यों में श्री भूधर जी महाराज बड़े ही यशस्वी शिष्य हुए।
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