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दो वर्ष तक उनके साथ रहे किन्तु सत्यधर्म की झलक उन्हें नहीं मिल पाई। वि.सं. १७१६ में आप अहमदाबाद चले आए। यहीं आप लवजी ऋषि की परम्परा के श्री सोम जी ऋषि और कान जी ऋषि से भी मिले। व्याख्यान सुने आगम सुना प्रभावित भी हुए पर कुछ मान्यताओं में मतभेद होने से दीक्षा लेने की इच्छा होने पर भी वे उनसे दीक्षा नहीं ले सके।
उस समय शास्त्रज्ञाता, साहित्यस्रष्टा एवं प्रखर पंडित क्रियोद्वारक श्री धर्मसिंह जी भी अहमदाबाद में थे। धर्मदास जी उनसे भी मिले, उनसे वे प्रभावित हुए पर कुछ मान्यता में भेद पड़ता था अतः बादशाहवाड़ी में आश्विन शुक्ला एकादशी सोमवार को स्वयं ही दीक्षित हो गए और अट्ठम तप किया। पारणे की गोचरी में एक कुम्हार के घर उन्हें राख बहराई गई तथा एक अन्य घर से छाछ मिली। धर्मदास जी ने समभाव से छाछ में राख मिलाकर पारणा किया। दूसरे दिन उन्होंने यह वृतान्त महान् क्रियोद्धारक पूज्य श्री धर्मसिंह जी महाराज को सुनाया। धर्मसिंह जी ने कहा-जिस प्रकार प्रत्येक घर में राख होती है, वैसे ही तुम्हारा श्रमणा-परिवार चारों ओर फैल जाएगा, हर गांव में तुम्हारे भक्त होंगे पर जैसे छाछ से दूध फट जाता हैं, वैसे ही तुम्हारे होने वाले भक्तों में आपस में फूट रहेगी, मतभेद रहेंगे, मनमुटाव रहेगा।
' उज्जैन श्री संघ ने आपको वि.सं. १७२१ में बसन्त पंचमी (माघ शुक्ला पंचमी) के दिन आचार्य पद प्रदान किया। उस समय आप केवल २१ वर्ष के थे एवं तीनों आचार्यों (लवजी ऋषि जी की संप्रदाय के आचार्य श्री कान जी. श्री धर्मसिंह जी एवं श्री धर्मदास जी) में सबसे छोटी उम्र के थे। आपके शिष्यों की संख्या ९९ थी। इतना बड़ा-मण्डल उस समय किसी का नहीं था। . 'धार' में आपके एक शिष्य ने आमरण संथारा ग्रहण कर लिया। कुछ समय बाद उस शिष्य का आत्मबल पीछे हटने लगा और धारणा बदल गई। वह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने के लिए तैयार हो गया। जब धर्मदास जी को यह वृत्तान्त विदित हुआ तो आपने कहलवाया कि मेरे आने तक प्रतिज्ञा पर स्थिर रहना।
___ उग्र विहार कर आप 'धार' पधारे। रास्ते में निर्दोष आहार-पानी भी नहीं मिला। धार पहुंच कर सभी तरह से शिष्य को समझाया, इस पर भी जब वह नहीं माना तो आपने स्वयं ने संथारा ग्रहण कर लिया । अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री मूलचंद जी महाराज को बुलाकर आपने साधु-व्यवस्था समझा दी।
आषाढ़ शुक्ला पंचमी संवत् १७७२ को आप स्वर्गवासी हुए ५। इस प्रकार बलिदान का एक नया आदर्श आपने समाज के सम्मुख रखा।
__ उनके पट्ट-शिष्य श्री मूलचंद जी महाराज ने सभी शिष्यों को एकत्र कर धर्मदास जी की इच्छानुसार बाईस टोलियों में विभक्त किया, सभी के प्रचार क्षेत्र नियत किये और आदेश दिया कि वे जाएं
और अपने-अपने क्षेत्रों में अधिक से अधिक श्रमण बनाये एवं चरित्रवान् श्रावक-समाज का निर्माण करें। तभी से स्थानकवासी समाज में यह 'बाईस-सम्प्रदाय' नाम चला हैं। इस नई व्यवस्था के अनुसार मारवाड़, थली पट्टी तथा मेवाड़-मेरवाड़ा का क्षेत्र पूज्य आचार्य श्री धन्ना जी म.सा के हिस्से में आया।
हमारा इतिहास, १५९-६० स्वर्गारोहण तिथि पर मतैक्य नहीं, पटटवली प्रबन्ध-संग्रह-आ.हस्तीमल जी म.पृ. १५० पर १७५९ बताया
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