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यात्रियों ने आगम सूत्र-परम्परा के अनुसार सत्य- श्रमण-धर्म को स्वीकार किया। ऐसे अनेक श्रमण बने और कालान्तर में लोकाशाह की मान्यता मानने वाले इस संघ का नाम लोंकागच्छ पड़ा। संवत १५३१ में कई साध्वियाँ जी भी दीक्षित हुई। इस समय तक लोकागच्छ सम्प्रदाय में ४०० से अधिक साधु-सती तथा लाखों की संख्या में श्रावक-श्राविकाएं बन गए थे।
शिथिलाचारियों के लिए यह असह्य था । उन्होंने लोकाशाह के मतानुयायी संतों को तरह-तरह के कष्ट देने शुरू किए। कहीं-कहीं तो इन श्रमणों को गोचरी तक नहीं मिल पाती थी। वह जमाना ही यतियों के श्री - पूज्यों का था । लोकाशाह दिल्ली गए और वहां के श्री- पूज्यों को भी सच्चे-धर्म का बोध कराया । दिल्ली में भी अनेक शिष्य बने । विरोधियों का यह क्यों सुहाने लगा...? अलवर में तीन दिन (तेले) के पारणों में उनको विषाक्त आहार गोचरी में बहराया गया, उसी से उनके प्राण- पंखेरू उड़ गए। आपके स्वर्गवास की तिथि पर भी मतैक्य नहीं हैं? इस पर भी चैत्र शुक्ला एकादशी वि.सं. १५४६ को इनका देहावसान अधिक विश्वसनीय लगता हैं।
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लोंकाशाह की मृत्यु के पश्चात् लोकागच्छ स्थानकवासी सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हो गया । उनकी लगाई सत्यधर्म की ज्योति का प्रभाव लगभग एक सौ वर्ष तक चला। किन्तु फिर शिथिलाचार फैलने लगा। कालान्तर में पांच क्रियोद्वारक मुनिराजों ने समय-समय पर इस शिथिलाचार को मिटाया। श्री जीराज जी महाराज, श्री लवजी ऋषि जी महाराज, श्री धर्मसिंह जी महाराज, श्री धर्मदास जी महाराज तथा हरजी ऋषि जी महाराज; इन पांचों क्रियोद्वारकों की अलग-अलग परम्पराएं चली। इन क्रियोद्धारकों में से श्री धर्मदास जी के पट्ट शिष्य श्री धन्ना जी महाराज प्रभावी आचार्य हुए। श्री धन्ना जी के पट्टघर श्री भूधर जी हुए और श्री भूधर जी महाराज के पट्ट शिष्य पूज्य श्री जयमल जी हुए। श्री जयमल जी अपने समय के क्रांतिकारी युगपुरुष थे। अतः आपके नाम से एक अलग संप्रदाय चला जो आज भी विद्यामान है। क्रियोद्धारक श्री धर्मदास जी महाराज
आपका जन्म अहमदाबाद के पास सरखेज नाम के गांव में वि.सं. १७०१ की चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन हुआ था। जाति के आप भावसार थे। पिता का नाम था श्री जीवणभाई पटेल और माता का हीराबाई ।
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जाति के पटेल- भावसार होने पर भी आपकी श्रद्धा जैनधर्म में थी और वहां के सुप्रसिद्ध यति तेजसिंह के यहां आपका आना-जाना था। बालक भी इन्हीं यति के पास पढ़ने लगा। बचपन से आपकी रुचि धर्म में पड़ गई थी। अल्पायु में ही आपने अनेक धर्मशास्त्रों एवं दर्शन - शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। आपकी बुद्धि विकसित एवं तीव्र थी। कई बार यति लोग आपके तर्कों से चौंक पड़ते थे।
माँ-बाप चाहते थे, आपकी शादी करना पर आप पर कुछ और ही रंग छा रहा था। आपनें अपने मन की बात पिताश्री से कही और सगाई - विवाह आदि न करने का आग्रह किया। एक बार आपका मिलन ‘पात्रिया-पंथ' के अग्रणी नेता श्री कल्याण जी भाई से हुआ। आपने पात्रिया-पंथ स्वीकार कर लिया।
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देखिए - जैन आचार्य चरितावली: आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज ।
वि.सं. १६९० के आसपास श्री प्रेमचन्दजी श्रीश्रीमाल के यति कुंवर जी से मतभेद होने पर इस पंथ की स्थापना हुई. ये शिथिलाचार के विरुद्ध थे तथा घर-घर जाकर भिक्षा लाने हेतु हाथ में एक पात्र रखते थे, अत: 'पात्रिया' कहलाए। ये लाल वस्त्र पहनते थे, तप-त्याग और संयम की आराधना करते थे पर इनकी मान्यता थी कि महावीर प्रभु के शासन में सच्चा साधु कोई हो ही नहीं सकता। चौदह पूर्व के और बारहवें अंग के विच्छेद के साथ साधुचर्या का भी लोप हो गया हैं ।
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