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साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
राजबाई और पिता श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा और मेरी बड़ी बहन रतनबाई ने बहुत कुछ बताया था। उन्होंने कहा कि महासती पुष्पवतीजी तेरह वर्ष की उम्र में जब साधना के पथ पर कदम बढ़ाने का निश्चय किया। तब सारे पारिवारिकजन विरोध में थे। कठिन परीक्षाओं में गुजरने के पश्चात् उनकी दीक्षा हुई। और उनके तीन वर्ष पश्चात् तुम्हारे भाई देवेन्द्र मुनि ने दीक्षा ग्रहण की। और उनकी दीक्षा के चार माह पश्चात् तुम्हारी मौसी ने दीक्षा ग्रहण की । मैंने मन ही मन में यह निश्चय किया कि मैं भी संयम को स्वीकार करूंगी । बहन, भाई और मौसी के कदमों पर चलूंगी । पिताजी से मुझे भय लगता था। पर माँ के सामने तो हृदय खुला हुआ था। मैंने माँ से कहा-मां मैं भी दीक्षा लूंगी। मेरी माँ धार्मिक संस्कारों वाली भद्र प्रकृति की सुशील महिला हैं।
माँ ने कहा-यदि तुम दीक्षा लोगी तो हम तुम्हें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं देंगे। मैं तुम्हारे पिताजी को कहकर आज्ञा भी करवा दूंगी। मैंने सोचा-माँ, मजाक कर रही है । क्योंकि मेरे आस-पास में कहीं भी वैराग्य नहीं था। खेलना, कुदना और पढ़ना, लिखना ही कार्य था। मैं साधु, सन्त, सतियों के पास भी नहीं जाती थी।
सन् १९५६ में उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी म० का वर्षावास उदयपुर में हुआ। गुरुदेव के साथ ही भाई महाराज श्री देवेन्द्र मुनिजी भी थे। भाई होने के नाते मैं यदा-कदा दर्शनार्थ जाती। पहली बार मेरा सन्तों से विशेष सम्पर्क हुआ। उस सम्पर्क में मेरे मन पर एक विशेष छाप पडी। वह छाप यह थी कि जैन श्रमणों का जीवन कितना त्यागमय है। वार्तालाप के प्रसंग में भाई म० मुझे यह प्रेरणा प्रदान करते रहे कि तुम्हें यह जो जीवन मिला है। इस जीवन का लक्ष्य भौतिक वैभव प्राप्त करना नहीं है। इस जीवन का उद्देश्य है-अपने जीवन को महान बनाना । अपने
ता के नाम को रोशन करना। मैंने मौसी महाराज व बहन म० के दर्शन भी नहीं किये थे। पर मन में यह निश्चय किया-मैं भी साधना पथ पर बढूंगी।
जब मैंने मौसी म० व बहन म० के दर्शन किये, मेरा हृदय आनन्द विभोर हो उठा। मौसी म० ने मुझे प्रेरणा दी और मैंने भी उन्हें आश्वासन दिया कि मेरी भावना है। मैं गोगुंदा अपने ननिहाल पहुँची। उस समय आप वहाँ पर पधारी हुई थी । ननिहाल में और तो कोई काम था ही नहीं, सारे दिन महासतीजी के ही सानिध्य में ज्ञान, ध्यान सीखना प्रारम्भ किया और वह सानिध्य मेरे लिये वरदान रूप में बना। मेरी भावना उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। मेरे बहुत अनुनय-विनय करने पर मुझे गुरुणीजी महाराज की सेवा में रहने की आज्ञा मिल गई। मैंने उनके सानिध्य में रहकर धार्मिक अध्ययन विकसित किया।
पूज्य पिता श्री की इच्छा थी कि मैं कुछ दिन रुककर बाद में दीक्षा लूं। धार्मिक अध्ययन करते-करते मुझे बारह महिने से अधिक समय हो गया था। अतः मैं चाहती थी कि मेरी दीक्षा जल्दी हो जाय । मेरी दीक्षा के पावन प्रसंग पर गुरुदेव श्री को भी बुलवाना चाहता थी। पर उस समय भाई
नजी महाराज अत्यधिक अस्वस्थ थे। वे स्वास्थ्य के कारण दीक्षा पर नहीं पधार सके । मेरी दीक्षा जैन जगत के ज्योतिर्धर नक्षत्र आचार्य श्री गणेशीलालजी महाराज के द्वारा सन् १९६० में उदयपुर में सम्पन्न हुई और मैंने बहिनजी महाराज का शिष्यत्व स्वीकार किया।
__ मेरा अध्ययन बहिनजी महाराज के ही नेतृत्व में हुआ। अध्ययन की अपेक्षा अध्यापन कार्य अधिक कठिन होता है। अध्ययन में विद्यार्थी अपने आपको खपाता है। पर अध्यापन में पर के लिये अपने आपको खपाना पड़ता है। अध्यापक की योग्यता का परीक्षण होता है। अध्यापक
२२ | प्रथम खण्ड, शुभकामना : अभिनन्दन
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