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साध्वारत्न पुष्पवता आमनन्दन ग्रन्थ
अध्यापन कर्त्ता की योग्यता को देखकर संक्षेप और विस्तार से विषय का विश्लेषण और प्रतिपादन करता है । अध्यापन में अनेक कठिनाइयाँ हैं । फिर भी इस कठिन कार्य को आप सहज रूप से सम्पन्न करने में कुशल हैं ।
आपकी देख-रेख में अनेक साध्वियों ने अध्ययन किया और अनेक छात्राओं ने धार्मिक अध्ययन किया । आपका अनुशासन कठोर नहीं अपितु मृदु है । आप अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को विशेष उलाहना नहीं देती । डाँट-डपट में आपका विश्वास ही नहीं है । फिर भी शैक्ष्य साध्वियों पर इतना नियन्त्रण होता है कि आपके बिना पूछे कोई भी कार्य नहीं करती । आत्मीयता में ऐसा अद्भुत आकर्षण है कि उतना आकर्षण डाँट-डपट में नहीं होता ।
कार्य करती हैं, उतनी ही तत्परता से आप अध्यापन का अपना ही कार्य समझती है । इसलिये आपको उस कार्य
जितनी तत्परता से आप अध्ययन कार्य भी करती हैं । वे अध्यापन के कार्य को बड़ा ही आनन्द आता है ।
दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् साधुचर्या का प्रारम्भिक ज्ञान कराने हेतु दशवैकालिक सूत्र को कंठस्थ कराया जाता । मेरे को पाठ देते समय आपने राजस्थानी कहावत “ज्ञान कण्ठाँ और दाम अण्टा" को सुनाते हुए कहा - इस उम्र में जितना ज्ञान तुम कण्ठस्थ करोगी । उतना ही तुम्हारे लिये लाभप्रद रहेगा ।" जब मैंने लघु सिद्धान्त कौमुदी का अध्ययन प्रारम्भ किया । तब आपने एक दोहा फरमाया था वह दोहा इस प्रकार है
खान पान चिन्ता तजै, निश्चय मांडे मरण । घो-ची-पू-ली करतो रहै, जद आवै व्याकरण ||
जब कोई व्यक्ति खान-पान की चिन्ताओं से मुक्त होकर केवल व्याकरण के पीछे अपने आपको झोंक देता है, जो व्याकरण को घोटने में, चितारने में, पूछताछ करने में और लिखने में अपना समय लगाता है वही संस्कृत व्याकरण को पढ़ सकता है । अध्ययन करने वाले विद्यार्थी का संकल्प जितना सुदृढ़ होगा, वह उतना आगे बढ़ सकेगा । मैं जो कुछ भी अध्ययन कर सकी हूँ, वह सब गुरुणीजी म० की ही कृपा का प्रतिफल है । गुरुणीजी महाराज का अध्ययन बहुत ही विशाल है और अध्यापन कराने की कला तो बड़ी अद्भुत है, अनूठी है ।
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गुरुणीजी महाराज की एक बहुत बड़ी विशेषता है कि वे अपना अमूल्य समय निरर्थक नहीं खोती । निरर्थक वार्तालाप करना आपको बिल्कुल ही पसन्द नहीं है । स्वास्थ्य जितना चाहिये उतना अनुकूल नहीं रहता तथापि नियमित समय पर आप जप करती हैं, ध्यान करती है और स्वाध्याय करती है ।
प्रायः यह देखा जाता हैं जो विद्वान होते हैं, उनमें सेवा का गुण बहुत ही कम होता है । वे प्रायः यह समझते हैं कि सेवा करना समय का अपव्यय करना है । पर गुरुणीजी महाराज इस बात के अपवाद रही हैं । मैंने अपनी आँखों से देखा है । मेरी दाद गुरुणीजी तप और त्याग की ज्वलन्त प्रतिमा महासती श्री सोहनकुंवरजी महाराज जब रुग्ण हुई थी तब आपने दिन-रात की परवाह किये बिना खूब सेवा की । मौसी महाराज प्रतिभा मूर्ति श्री प्रभावतीजी महाराज जब अस्वस्थ थी तब आप इस रूप से सेवा करती रही । उनकी सेवा भावना को देखकर मैं विस्मय मुग्ध थी । एक बार मेरे को अपेन्डिस साइटिस का दर्द हो गया । जिसका ऑपरेशन करवाना पड़ा। उस समय आपकी सेवा भावना देखकर तो मैं दंग रह गई । आप अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर मेरी सेवा में लगी रही । चाहे कोई छोटी सती
ये है पारदर्शी व्यक्तित्व | २३
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