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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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ध्यानयोग के विशेष निर्देशन सूत्र ( उपाय ) - (ध्यानयोग को जानने के उपाय)
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और रामसेनाचार्य ने आगम का सिंहावलोकन करके ध्यानयोग का यथार्थ स्वरूप जानने के लिए कुछ द्वार (अंग) प्रतिपादन किये हैं46 -
(१) ध्यान की भावना (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वैराग्य एवं मैत्र्यादि) । (२) ध्यान के लिए उचित देश या स्थान ।
(३) ध्यान के लिए उचित काल ।
(४) ध्यान के लिए उचित आसन ।
(५) ध्यान के लिए आलंबन |
(६) ध्यान का क्रम (मनोनिरोध या योगनिरोध) ।
(७) ध्यान का विषय (ध्येय )
( 5 ) ध्याता कौन ?
( १० ) शुद्ध लेश्या ।
(१२) ध्यान का फल ( संवर, निर्जरा ) ।
(६) अनुप्रेक्षा ।
(११) लिंग (लक्षण) ।
आगम कथित चारों ध्यानों का फल क्रमशः तिर्यंचगति, नरकगति, स्वर्ग या मोक्ष है जो संवर और निर्जरा का फल है । वैसे ही ( १ ) ध्याता, (२) ध्येय, (३) ध्यान, (४) ध्यान फल, (५) ध्यान स्वामी, (६) ध्यान क्षेत्र, (७) ध्यान काल और (८) ध्यानावस्था ।
ध्यानयोग के स्वरूप को विशेष रूप से जानने के लिये उपरोक्त अंगों को बताया है । उनमें 'भावना' और 'अनुप्रेक्षा' ऐसे एकार्थी दो शब्द आये हैं । ऐसे देखा जाय तो इन दोनों शब्दों में खास कोई अन्तर नहीं है किन्तु अभ्यास की भिन्नता जरूर है । ज्ञानदर्शनादि 'भावना' ध्यान की योग्यता प्राप्त करने
ए हैं और अनित्यादि अनुप्रेक्षा वीतराग भाव की पुष्टि के लिए है । यह ध्यान के मध्यवर्ती काल में की जाती है । एक विषय पर मन सदा स्थिर नहीं रह सकता । मन का स्वभाव चंचल है । जिसके कारण ध्यानावस्था में बीच-बीच में ध्यानान्तर हो जाता है । उस समय अनित्यादि अनुप्रेक्षा का प्रयोग किया जाता है। यह कालीन भावना है और ज्ञानदर्शनादि प्रारम्भिक । आगम में भावना को अनुप्रेक्षा भी कहा है वैसे अन्य ग्रन्थों में भी 147
ध्यान का अधिकारी कौन ?
प्रश्न है कि ध्यान का अधिकारी कौन हो सकता है ?
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ज्ञानियों का कथन है कि लोक को तीन भागों में विभाजित किया गया है । जैसे मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । इसे शास्त्रीय भाषा में लोकाकाश कहते हैं । जहाँ षट् द्रव्यों का अस्तित्व होता है वह लोक है । दो भागों में लोक विभाजित किया गया है— लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश की अपेक्षा अलोकाकाश अनन्त गुणा बड़ा है किन्तु उसमें चेतन और अचेतन का अस्तित्व नहीं है । लोकाकाश में षट् द्रव्य हैं, जड़ चेतन का अस्तित्व है । जन्म-मरण का चक्र है । लोकाकाश में सूक्ष्म और बादर, त्रस और स्थावर जीवों का अस्तित्व है । जीवों का प्रथम निवास स्थान निगोद है । जहाँ जीव का अनन्त काल व्यतीत हो जाता है । पुण्यवानी की प्रबलता बढ़ने पर जीव का विकास होने लगता है तब वह क्रमशः निगोद (सूक्ष्म निगोद) से निकलकर बादर (पृथ्वी - अप - तेज - वायु - वनस्पति काय ) ३ विकले -
'भारतीय वाङमय में ध्यानयोग : एक विश्लेषण' : डॉ० साध्वी प्रियदर्शना | ३४१.
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