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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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न्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चउरिन्द्रिय) और पंचेन्द्रिय (नारक, तिर्यंच, देव और मनुष्य) में प्रवेश करता है। इनमें असंख्यात और अनन्तानन्त काल व्यतीत करता है। किन्तु इन सबमें मनुष्य भव दुर्लभ माना जाता है। जीव की दो अवस्था हैं-भव्य और अभव्य । अभव्य में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता नहीं है, और भव्य में है। जीव दो पर्यायों में सतत भ्रमण करता रहता है-स्वभाव-पर्याय और विभाव-पर्याय। चारों गति में मिथ्यात्वादि के कारण परिभ्रमण करना विभाव पर्याय है और कर्मोपाधि रहित स्व-स्वरूप में रमण करना स्वभावपर्याय है। विभावपर्याय के कारण ही जीव अनादिकाल से अचरमावर्तकाल में अनन्तानन्त भव व्यतीत करता है। इस स्थिति में स्थित जीव के मैयादिगण एवं मोक्ष-जिज्ञासा नहीं होती। अचरमावर्तकाल को आगम भाषा में "कृष्णपाक्षिक" काल कहते हैं । इस अवस्था में जीव मोक्ष नहीं पा सकता । मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता तो भव्य में ही हो सकती है । भव्य में भी कुछ ऐसे अभवी के भाई बैठे हैं जिन्हें जाति भवी कहते हैं । ये मोक्ष को नहीं पा सकते ।
जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'अचरमावर्त' और 'चरमावर्त' ऐसे दो शब्द आते हैं। जब तक आत्मा (जीव) अन्तिम पुद्गल-परावर्तकाल को प्राप्त नहीं होता तब तक धर्मबोध प्राप्त नहीं कर सकता। गाढ़ कर्मावरण के कारण जीव अचरमावर्तकाल (कृष्णपाक्षिक) में घूमता ही रहता है। चारों गति में परिभ्रमण करता रहता है। मनुष्य भव भी प्राप्त कर लेता है, गुरुवन्दन, दानादि क्रिया, भक्ति भाव सब कुछ करता है परन्तु रत्नत्रय (ज्ञान-दर्शन-चारित्र) के अभाव में ये सारी क्रियायें करने पर भी फलदायक नहीं बनती हैं। भवनाशक नहीं होतीं परन्तु भववर्धक होती हैं। अतः अचरमावर्तकाल भववर्धक होता है ।
दूसरा शब्द है 'चरमावर्त' । वह दो शब्दों के संयोग से बना है-चरम+आवर्त । 'चरम' का अर्थ है अन्तिम और 'आवर्त' का अर्थ है घुमाव । कर्म आठ हैं। उनमें मोहनीय कर्म की प्रधानता है । इसको ७० कोड़ा-कोड़ी सागरोपम स्थिति है, शेष में कुछ की ३३ कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, कुछ की ३० कोड़ा-कोड़ी सागरोपम और कुछ की २० कोड़ा-कोड़ी सागरोपम । इन सबमें मोहनीय कर्म की ही स्थिति बड़ी है । 'चरमावर्त' काल में मोहनीप के ७० कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का धुमाव अन्तिम हो तभी जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है। चरमावर्तकाल में भी प्रत्येक जीव अनन्तानन्त पुद्गलपरावर्तकाल प्रसार करता है। जव जीव में परिणाम विशुद्धि के कारण ऐसे भाव निर्माण होते हैं कि जिससे वह 'तथाभव्यत्व' की संज्ञा को प्राप्त करता है। इसी अवस्था में धर्म-सन्मुख होने की योग्यता जीव में आती है और यही 'शुक्लपाक्षिक' अवस्था कहलाती है। इसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'अपूनर्बन्धक' कहते हैं। इसलिये ज्ञानियों ने ध्यान के अधिकारी निम्नलिखित बतलाये हैं:
(१) अपुनबंधक, (२) सम्यग्दृष्टि और (३) चारित्र आत्मा। इसमें देशविरत और सर्वविरत दोनों प्रकार के साधक होते हैं । ये चारों प्रकार के ध्यानाधिकारी शुक्लपाक्षिक (चरमावर्तकाल) अवस्था में ही विद्यमान रहते हैं।
ध्यान के सोपान-आगम एवं ग्रन्थों के कथनानुसार ध्यान के दो सोपान माने गये हैं32(१) छद्मस्थ का ध्यान और (२) जिन का ध्यान । मन की स्थिरता छद्मस्थ का ध्यान है जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और जिन का ध्यान काया की स्थिरता है । इसे ही 'योग निरोध' कहते हैं। मन की स्थिरता चौथे गुणस्थान से विकासपथगामी बनती है और क्रमशः आगे-आगे बढ़ते-बढ़ते आठवें गुणस्थान में विशेष प्रगति करती है। यह गुणस्थान ध्यान साधक आत्मा के लिए विशिष्ट ध्यान साधना में आरोहण कराने
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३४२ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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