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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
(१) अन्तर्दर्शन, (२) निरीक्षण, (३) प्रयोग, (४) तुलना और (५) मनोविश्लेषण । इसे आज कल की भाषा में 'चित्त - विश्लेषण' की विधि कहते हैं । इन विधियों के अतिरिक्त अन्य भी प्रणालियाँ मिलती हैं"
(१) विश्लेषण प्रणाली, (२) विकलनात्मक प्रणाली, (३) उदात्तीकरण और ( ४ ) निर्देशनात्मक
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प्रणाली ।
इस प्रकार मनोविज्ञान में ध्यान का स्वरूप चित्तशुद्धि को माना है । जिसमें वित्त में स्थित वासना, कामना, संशय, अन्तर्द्वन्द्व, तनाव, क्षोभ, उद्विग्नता, अशांति आदि विकारों को नाश किया जाता है । अतः आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ध्यान का स्वरूप यह है कि मन की असीम शक्ति को ध्यान द्वारा विकसित किया जाय ।
भारतीय ध्यान की विचारधाराओं में 'मन' को प्रधानता दी गई है ।
जैन दृष्टि से ध्यान में मन की प्रधानता
मन का स्वभाव चंचल है। वह विविध प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं के स्कन्धों का अनुभव करके राग-द्वेष-मोहादि भावों में सतत रमण करता रहता है । वह दो कार्यों में सतत क्रियाशील रहता हैशुभाशुभ कर्मानुभूति । मन शुद्ध साधन द्वारा संसार घटाता है और अशुद्ध साधन द्वारा संसार बढ़ाता है । अतः मन की क्रिया द्वारा भव बढ़ाना और घटाना ध्यानयोगी प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के उदाहरण द्वारा स्पष्ट होता है । मन दो प्रकार का है - ( १ ) सविकल्प मन और (२) निर्विकल्प मन । वस्तुतः निर्विकल्प मन ही 'आत्म तत्त्व' है और सविकल्प मन 'आत्म भ्रान्ति' है । मन की अस्थिरता ही रागादि परिणति का कारण है । मन की क्रिया कर्मबन्ध और मुक्ति का कारण है । मन की स्थिरता ही ध्यान की अवस्था है | आत्मस्वरूप का भान स्थिर मन द्वारा ही हो सकता है । स्थिर मन ही 'आत्म तत्त्व' है और अस्थिर मन 'आत्म भ्रान्ति' है । आत्म भ्रान्ति के कारण मनोनिग्रह के अभाव से तन्दुलमत्स्य की भांति भव बढ़ा देता है । इसलिये ज्ञानियों का कथन है कि वचन और काय की अपेक्षा मन द्वारा ही कर्मबन्ध अधिक होता है । आगम में मन को घोड़े की उपमा दी है । आगमेतर ग्रन्थों में इसे कपिलादि उपमासे वर्णित किया है । इसलिए मोक्षाभिलाषी साधक के लिए मन 'बन्दर' को वश करना ही होगा । क्योंकि आत्मा असंख्यात प्रदेशी है । उसके एक-एक प्रदेश पर अनन्त ज्ञान-दर्शन- चारित्रादिगुण विद्यमान हैं । उन गुणों को विकसित करने के लिए मन की स्थिरता आवश्यक है 145
मनोनिग्रह के उपाय
आत्म-स्वरूप में रमण करने के लिए मन को वश में करना होगा । उसे वश में करने के लिये ज्ञानियों ने कुछ उपाय बताये हैं
(१) इन्द्रियविजय के लिये २३ विषय और २४० विचारों पर प्राप्त करना ।
(२) कषाय - शमन ।
(3) शुभ भावना का सतत चिन्तन ।
(४) समता एवं वैराग्य भाव में सतत लीन रहना ।
(५) स्वाध्याय और आत्मज्ञान में लीन ।
(६) योगाष्टांग और आठ दृष्टियों का सदैव चिन्तन-मनन करना
३४० | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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