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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
जाता था। पहले शल्य क्रिया करते, फिर वनौषधियों का प्रयोग करते थे । औषधियों का महत्व भी परम्पराओं में मान्य रहा है। प्रसिद्ध सूक्त है -- अचिन्त्यो हि मणिमंत्रौषधीनां प्रभावः - मणियों, मन्त्रों और औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है । मन्त्रों के द्वारा भी कुण्डलिनी को जगाया जा सकता है तथा विविध मणियों, रत्नों के विकिरणों के द्वारा और औषधियों के द्वारा भी उसे जागृत किया जा सकता है । तेजोलेश्या के विकास का कोई एक ही स्रोत नहीं है । उसका विकास अनेक स्रोतों से किया जा सकता है । संयम, ध्यान, वैराग्य, भक्ति, उपासना, तपस्या आदि-आदि उसके विकास के स्रोत हैं । इन विकास - स्रोतों की पूरी जानकारी लिखित रूप में कहीं भी उपलब्ध नहीं होती । यह जानकारी मौखिक रूप में आचार्य शिष्य को स्वयं देते थे ।
गोशालक ने महावीर ने पूछा - "भंते ! तेजोलेश्या का विकास कैसे हो सकता है ?" महावीर ने इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के एक विकास स्रोत का ज्ञान कराया। उन्होंने कहा - " जो साधक निरन्तर दो-दो उपवास करता है, पारणे के दिन मुट्ठी भर उड़द या मूंग खाता है और एक चुल्लू पानी पीता है, भुजाओं को ऊँची कर सूर्य की आतापना लेता है, वह छह महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या को विकसित कर लेता है ।"
तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत हैं
१. आतापना - सूर्य के ताप को सहना ।
२. क्षांति क्षमा-समर्थ होते हुए भी क्रोध - निग्रहपूर्वक अप्रिय व्यवहार को सहन करना ।
३. जल - रहित तपस्या करना ।
इनमें केवल "क्षांति क्षमा" नया है । शेष दो उसी विधि के अंग है जो विधि महावीर ने गोशालक को सिखाई थी।
कुण्डलिनी को जगाने के अनेक हेतु हैं । उनमें प्रेक्षाध्यान भी एक सशक्त माध्यम बनता है कुण्डलिनी को जगाने में, तैजस शक्ति को जगाने में । दीर्घ श्वास प्रेक्षा की प्रक्रिया कुण्डलिनी के जागरण को प्रक्रिया है । यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन एक घण्टा दीर्घश्वास प्रेक्षा का अभ्यास करता है तो कुण्डलिनी जागरण का यह शक्तिशाली माध्यम बनता है । अन्तर्यात्रा भी उसके जागरण का रास्ता है । सुषुम्ना के मार्ग से चित्त को शक्ति केन्द्र तक और ज्ञान केन्द्र से शक्ति केन्द्र तक ले जाना- लाना भी कुण्डलिनी को जागृत करता है ।
तीसरा माध्यम है-शरीर प्रेक्षा । शरीर-दर्शन का अभ्यास जब पुष्ट होता है तब तैजस शक्ति का जागरण होता है ।
चौथा माध्यम है -चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा । चैतन्य केन्द्रों को देखने का अर्थ है कुण्डलिनी के सारे मार्गों को साफ कर देना ।
चैतन्य केन्द्रों के सारे अवरोध समाप्त हो जाने पर कुण्डलिनी जागरण सहज हो जाता है ।
पाँचवां माध्यम है- लेश्याध्यान | यह सबसे शक्तिशाली साधन है कुण्डलिनी को जगाने का | रंग हमारे भावतन्त्र को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। रंगों का सम्बन्ध चित्त के साथ गहरा होता है । जब उस प्रक्रिया से साधक गुजरता है तब शक्ति का सहज जागरण होता है ।
कुण्डलिनीयोग: एक विश्लेषण: युवाचार्य महाप्रज्ञ | ३०५
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