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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
विकिरणों के अतिरिक्त कुण्डलिनी का अस्तित्व वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध नहीं हो सकता । मध्यकालीन साहित्य में अतिशयोक्तियों और रूपकों का उल्लेख अधिक मात्रा में प्राप्त होता है । उनकी भाषा के गहन जंगल में से मूल को खोज निकालना कठिन सा गया है । आज के चिन्तक उन सब अतिशयोक्तियों और रूपकों के चक्रव्यूह को तोड़कर यथार्थ को पकड़ने का प्रयास करते हैं । उनके प्रयास में कुण्डलिनी का अस्तित्व प्रमाणित होता है, पर होता है वह सामान्य शक्ति के विस्फोट के रूप में । वह कुछ ऐसा आश्चर्यकारी तथ्य नहीं है, जिसे अमुक योगी ही प्राप्त कर सकते हैं या जिसे अमुक-अमुक योगियों ने ही प्राप्त किया है । यह सर्वसाधारण है । कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसकी कुण्डलिनी जागृत न हो । वनस्पति के जीवों की भी कुण्डलिनी जागृत है । हर प्राणी की कुण्डलिनी जागृत होती है । यदि वह जागृत न हो तो वह चेतन प्राणी नहीं हो सकता । वह अचेतन हो सकता है । जैन आगम ग्रन्थों में कहा गयाचैतन्य ( कुण्डलिनी) का अनन्तवां भाग सदा जागृत रहता है । यदि यह भाग भी आवृत हो जाए तो जीव अजीव बन जाए, चेतन अचेतन हो जाए । चेतन और अचेतन के बीच यही तो एक भेद-रेखा है ।
प्रत्येक प्राणी की कुण्डलिनी यानी तैजस शक्ति जागृत रहती है । अन्तर होता है मात्रा का । कोई व्यक्ति विशिष्ट साधना के द्वारा अपनी इस तैजस शक्ति को विकसित कर लेता है और किसी व्यक्ति को अनायास ही गुरु का आशीर्वाद मिल जाता है तो साधना में तीव्रता आती है और कुण्डलिनी का अधिक विकास हो जाता है । यह अनुभव आगामी यात्रा में सहयोगी बन सकता है । बनता है यह जरूरी नहीं है । गुरु की कृपा ही क्यों, मैं मानता हूँ कि जिस व्यक्ति का तैजस शरीर जागृत है, उस व्यक्ति के सान्निध्य में जाने से भी दूसरे व्यक्ति की कुण्डलिनी पूर्ण जागृत हो जाती है । गुरु कृपा का इतना सा लाभ होता है। कि एक बार जब अनुभव हो जाता है, फिर चाहे वह अनुभव क्षणिक ही क्यों न हो, तो वह आगे के अनुभव को जगाने के लिए प्रेरक बन जाता है । इतना लाभ अवश्य होता है । यह अपने आप में बहुत मुल्यवान् है । यही शक्तिपात है । पर जैसे-जैसे शिष्य, गुरु या उस व्यक्ति से दूर जाएगा, वह शक्ति धीरेधीरे कम होती जाएगी। आखिर ली हुई शक्ति कितने समय तक टिक सकती है । अपनी शक्ति को जगाना पड़ता है । वही स्थायी बनी रह सकती है । अपनी शक्ति को जगा लेने पर भी अवरोध आ सकते हैं । किसी व्यक्ति ने उस जागृत शक्ति से अनुपयुक्त काम कर डाला, तो वह शक्ति चली जाती है, क्षीण हो जाती है ।
प्रेक्षाध्यान से भी कुण्डलिनी जाग सकती है । उसको जगाने के अनेक मार्ग हैं, अनेक उपाय हैं । संगीत के माध्यम से भी उसे जगाया जा सकता है । संगीत एक सशक्त माध्यम है कुण्डलिनी के जागरण का । व्यायाम और तपस्या से भी वह जाग जाती है। भक्ति, प्राणायाम, व्यायाम, उपवास, संगीत, ध्यान आदि अनेक साधन हैं, जिनके माध्यम से कुण्डलिनी जागती है । ऐसा भी होता है कि पूर्व संस्कारों की प्रबलता से भी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और यह आकस्मिक होता है । व्यक्ति कुछ भी प्रयत्न या साधना नहीं कर रहा है, पर एक दिन उसे लगता है कि उसकी प्राणशक्ति जाग गयी । इसलिए कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता है कि अमुक के द्वारा ही कुण्डलिनी जागती है और अमुक के द्वारा नहीं जागती। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि व्यक्ति गिरा, मस्तिष्क पर गहरा आघात लगा और कुण्डलिनी जाग गयी । उसकी अतीन्द्रिय चेतना जाग गयी । कुण्डलिनी के जागने के अनेक कारण हैं । औषधियों के द्वारा भी कुण्डलिनी जागृत होती है । अमुक-अमुक वनस्पतियों के प्रयोग से कुण्डलिनी के जागरण में सहयोग मिलता है । तिब्बत में तीसरे नेत्र के उद्घाटन में वनस्पतियों का प्रयोग भी किया ३०४ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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