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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्रेक्षाध्यान की पूरी प्रक्रिया कुण्डलिनी के जागरण की प्रक्रिया है।
कुण्डलिनी-जागरण के लाभ भी हैं और अलाभ भी हैं। कुछ लोगों ने बिना किसी संरक्षण के स्वतः कुण्डलिनी जागरण की दिशा में पादन्यास किया। पूरी युक्ति हस्तगत न होने के कारण उनका मस्तिष्क विक्षिप्त हो गया। इसके अतिरिक्त और अनेक खतरे सामने आते हैं। प्रश्न होता है--- क्या इन खतरों से बचा जा सकता है ? बचने के उपाय क्या है ?
शक्ति हो और खतरा न हो, यह कल्पना नहीं की जा सकती। जिसमें तारने की शक्ति होती है, उसमें मारने की भी शक्ति होती है । जिसमें मारने की शक्ति होती है, उसमें तारने की भी शक्ति होती है। शक्ति है तो तारना और मारना दोनों साथ-साथ चलते हैं । कुण्डलिनी के साथ खतरे भी जुड़े हुए हैं। विद्युत लाभदायी है तो खतरनाक भी है । विद्युत के खतरों से सभी परिचित हैं। बिजली के तार खुले पड़े हैं। कोई छुएगा तो पहले झटका लगेगा, छूने वाला गिर जाएगा या गहरा शॉट लगा तो मर भी जायेगा, खतरा निश्चित है।
सोचें, प्राण-शक्ति का प्रवाह ऊपर जा रहा है। उसकी ऊर्ध्व यात्रा हो रही है । प्राण का प्रवाह सीधा जाना चाहिए सुषुम्ना से, पर किसी कारणवश वह चला गया पिंगला में तो गर्मी इतनी बढ़ जाएगी कि साधक सहन नहीं कर पाएगा। वह बीमार बन जाएगा और जीवन भर उस बीमारी को उसे भोगना पड़ेगा। उसकी चिकित्सा असम्भव हो जाएगी। प्राणशक्ति एक साथ इतनी जाग गयी कि साधक में उसे सहन करने की क्षमता नहीं है तो वह पागल हो जाएगा । ऐसा होता है । एक साथ होने वाला शक्ति का जागरण अनिष्टकारी होता है । इसीलिए कहा जाता है कि तैजस शक्ति का विकास करना चाहे, कुण्डलिनी शक्ति का विकास करना चाहे तो उसे धीरे-धीरे विकसित करना चाहिए। इस विकास की प्रक्रिया के अनेक अंग है। हठयोग में "कायसिद्धि" को साधना का प्रारम्भिक बिन्दु माना है। यह बहत महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन है । जैन परम्परा में तपस्या और आहार शुद्धि को साधना का महत्त्वपूर्ण अंग माना है। यह इसीलिए कि तपस्या और आहारशुद्धि से कायसिद्धि होती है, शरीर सध जाता है। जब कायसिद्धि हो जाती है तब शक्ति जागरण के सारे खतरे समाप्त हो जाते हैं। पारीर को दृढ़ और मजबूत बनाये बिना शक्तियों को अवतरित करने का प्रयत्न करना बहुत हानिकारक है । कमजोर शरीर में यदि शक्ति का स्रोत फूटता है तो शरीर चकनाचूर हो जाता है, नष्ट हो जाता है । वह भीतर-ही-भीतर भष्मीसात् हो । जाता है । नाड़ी-संस्थान को शक्तिशाली बनाये बिना शक्ति-जागरण का प्रयत्न करना नादानी है, वज्र मूर्खता है। नाड़ी-शोधन कुण्डलिनी जागरण का महत्वपूर्ण घटक है। नाड़ी शोधन की निश्चित प्रक्रिया है। नाड़ी-शोधन का अर्थ शरीर की नाड़ियों का शोधन नहीं है । उसका अर्थ है- प्राण प्रवाह की जो नालिकाएँ। हैं, जो मार्ग हैं, उनका शोधन करना। बीच में आने वाले अवरोधों को साफ करना। नाड़ी शोधन के बिना शक्ति का जागरण बहुत खतरनाक होता है । शक्ति जाग गयी, पर आगे का रास्ता अवरुद्ध है, साफ नहीं है तो वह शक्ति अपना रास्ता बनाने के लिए विस्फोट करेगी, रास्ता मोड़ेगी। उस विस्फोट से भयंकर स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
इन सभी खतरों से बचने के लिए दो उपाय हैं-अनुभवी व्यक्ति का मार्गदर्शन और धैर्य । जो भी शक्ति-जागरण के महत्त्वपूर्ण उपक्रम हैं, उनका अभ्यास स्वतः नहीं करना चाहिए। किसी अनुभवी व्यक्ति के परामर्श और मार्गदर्शन में ही उस साधना को प्रारम्भ करना चाहिए। यह इसलिए कि वह अनुभवी व्यक्ति यदा-कदा होने वाले आकस्मिक खतरों से उसे बचाकर उसका मार्ग प्रशस्त करता है।
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३०६ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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