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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
वाराहमिहिर तो और कठोर हो गये
जाया वा, जनयित्री वा सम्भवः स्वीकृतौ नृणाम् । हे कृतघ्ना ! तयनिन्दा, कुर्वतावः कुतः सुखम् ॥
इन सबके परिप्रेक्ष्य में अंग्रेजी लेखक न्यूमैन का यह कथन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं - “यदि तुम्हारी आत्मा बन्धन रहित उच्चतम भूमिका पर पहुँचना चाहती है, तो उसे नारीत्व से विभूषित होना होगा, चाहे कितना ही उसमें नरत्व क्यों न हो ?"
पुष्प-सूक्ति-सौरभ
आत्म-सुधार से आत्म-सेवा के साथ-साथ पर सुधार से पर-सेवा के प्रयत्न में ही स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय है ।
क्षमा विशाल अन्तःकरण की भावाभिव्यक्ति है ।
दूसरे के दोषों के प्रति उदार और सहनशील बनना ही क्षमा है ।
क्षमा, स्नेह की शून्यता को स्नेह से भरना है ।
क्षमा एवं स्नेह वही दे सकता है, जो स्वभाव से महान् हो, समर्थ हो ।
क्षमा का शब्दोच्चार ही क्षमा नहीं है, अपितु दूसरों की दुर्बलताओं व अल्पताओं को स्नेह की महान् धारा में विलीन करने की क्षमता को ही क्षमा कहते हैं ।
[ जो जितना सहन कर सकता है, पचा सकता है, वह उतना हो बहादुर है, उतने ही अंश में आनन्द का उपभोक्ता है ।
--- पुष्प- सूक्ति-सौरभ
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२४४ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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