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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
मृदुत्वं च तनुत्वं च पराधीनत्वमेव च।
स्त्री गुणाः ऋषिभिः प्रोक्ताः, धर्मतत्वार्थ दभिः ।। औरों की नहीं जानता, भारतीय नारी का जीवन नर को पूर्णता देने का ही शिव संकल्प रहा है। हमारे जीवन के सारे उपक्रम इसके प्रमाण हैं । कालिदास जैसे महाकवि ने भी अपनी पत्नी के प्रथम प्रश्न 'अस्ति कश्चित् वागर्थः' से ही प्रेरित होकर कुमारसम्भव, मेघदूत और रघुवंश लिखे-ये तीनों शब्द ही क्रमशः इन तीन महाकाव्यों के प्रथम शब्द हैं। तुलसीदास की सारी राम भक्ति का मूल स्रोत रत्नावली ही थी। दो चार नहीं, ऐसे अनेकानेक उदाहरण हमारी सांस्कृतिक परम्परा की विरासत हैं। कालिदास से लेकर रवीन्द्रनाथ और प्रसाद तक भारतीय मनीषियों ने अध्यात्म और प्रेम की जो उज्ज्वल गाथा गायी है, उसमें नारी ही प्रधान और प्रमुख है। भारतीय नारी की श्रेष्ठता उसके त्याग और समर्पण में है । डॉ० राधाकृष्णन के शब्दों में "आदर्श नारी उस प्रेम का प्रतीक है जो हमें खींचकर उच्चतम स्थिति की ओर ले जाता है। संसार की महान कथाएँ निष्ठाशील प्रेम की ही कथाएँ हैं । कष्टों और वेदनाओं में भी निष्ठा को बनाए रखना वह वस्तु है, जिसने संसार को द्रवित कर दिया है। देवता भी विचित्र हैं हम में जो अच्छा, भद्र और मानवोचित प्रेममय अंश है, उसी के द्वारा वे हमें कष्टों में ला पटकते हैं। हमारे पास (उपसर्ग) इसलिए भेजते हैं कि हम महानतर बातों के लिए उपयुक्त बन सकें। शताब्दियों की परम्परा ने भारतीय नारी को सारे संसार में सबसे अधिक निःस्वार्थ, सबसे अधिक आत्मत्यागी, सबसे अधिक धैर्यशील और सबसे अधिक कर्तव्यपरायण बना दिया है। उसे अपने कष्ट-सहन पर ही गर्व है" । द्रौपदी सत्यभामा से कहती है
सुखं सुखेनैह न जातु लभ्यं दुःखेन साध्वी लभते सुखानि । रवीन्द्र की चित्रागंदा का अर्जुन के प्रति कथन है-"नहि आमि सामान्य रमणी, पूजा करि राखिबै माथाय, से आमि नय,....... यदि पार्श्व राखौ, मोरे संकटेर पथे, दरुह चिन्तार, जदि अंशदा यदि अनुमति करो, कठिन ब्रतेर, तब सहाय होइते, जदि सुखे दुःखे मोर करो सहचरी, आमार पाइबे तबे परिचय"।
विश्वात्मा के परम चैतन्य का आधार देश, काल और रूपातीत सौन्दर्य बोध है, जो आत्मा से आत्मा को, सचराचर जगत को समष्टि चेतना से समाहित कर समत्व की मधुमती भूमिका प्राप्त करता
है। कहीं वह सीता है, तो कहीं द्रौपदी, कहीं मैत्रेयी है तो कहीं गार्गी- कहीं सुजाता है, तो कहीं E चन्दनबाला-कहीं राधा है, तो कहीं शिवा, कहीं शारदा हुई, तो कहीं कस्तूरबा । इतिहास में वह पदमिनी
हुई, ता कभी ताराबाई और जीजाबाई । भारत के आधुनिक पुनर्जागरण में भी भारतीय नारी समाज का योगदान कम नहीं-सांस्कृतिक परम्परा, शिक्षा, समाज-सुधार, स्वाधीनता संग्राम, कुप्रथाओं का विरोध---समाज का ऐसा कौन सा क्षेत्र रहा, जिसमें उनकी भूमिका अग्रगण्य नहीं रही प्रताड़ित और उपेक्षित होकर भी, उनकी साधना मानव-कल्याण का ही उद्घोष रही-विश्व चेतना की पूर्णता का। जीवन के पुरुषार्थ का मंगल सूत्र भी हमारा नारी समाज ही है। महाभारत में महर्षि व्यास को भी यह कहना पड़ा
नाऽपराधोऽस्ति नारीणां, नर एवाऽपराध्यति । सर्वं कार्य पराऽध्यत्वात्, नापराऽध्यति चागना ।
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Timir
भारतीय संस्कृति और परम्परा में नारी : कल्याणमल लोढ़ा | २४३:
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