________________
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
नारी का उदात्त रूप--एक दृष्टि
....HHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHILLITERAPILLAFARIDHILLIRIIIIIIIIIIIIIIII
-मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय'
एम० ए०, साहित्यरत्न, (मालवकेसरी स्व० श्री सौभाग्यमलजी मा० सा० के शिष्य) जैन कवि श्री अमरचन्द्रसूरि ने नारी के विषय में एक बहुत बड़ी बात कही है । उस बात के माध्यम से हम यह सहज में समझ सकते हैं कि वस्तुतः नारी जाति को कितना उच्च सम्मान दिया है जैन दार्शनिकों/कवियों/एवं मनीषियों ने; देखिए उन्हीं के शब्दों में
"अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारंगलोचना।
यत्कुक्षि प्रभावा एता वस्तुपाल ! भवादृशाः ॥" अर्थात्- "इस असार संसार में सारंग लोचन वाली स्त्री ही सार है, क्योंकि हे वस्तुपाल ! उसकी कुक्षि से तुम जैसे नर-रत्नों का जन्म हुआ।"
जैन धर्म और दर्शन के आद्य-प्रणेता भगवान ऋषभदेव/प्रथम तीर्थंकर से लगाकर शेष २३ तीर्थकरों को जन्म देने वाली इस धरा पर नारी ही है।
तीर्थंकर की माता को जगत्-जननी कहा जाता है; और रत्न-कुक्षि की धारिणी भी।
तीर्थंकर के जन्मोत्सव के समय जब इन्द्र देव इस मनुजलोक में आते हैं तो वे भी सर्वप्रथम उनकी माता को ही नमस्कार करते हैं ।
'हे रत्नकुक्षि की धारिणी, जगत्-जननी माता, तुम्हें नमस्कार है।' जैन धर्म-दर्शन के मान्य/सर्वपूज्य ६३ (त्रेसठ) शलाका-पुरुषों का जन्म भी नारी के गर्भ से ही हुआ।
नारी के अभाव में विश्ववंद्य २४ तीर्थंकरों का एवं अन्य शलाका-पुरुषों का इस धरा पर कैसे अवतरण होता?
आज हम सब भी इस मनुज-धरा पर स्थित हैं वह भी नारी के उपकार से/अनन्त उपकार से। नारी के माध्यम से ही हम जन्म लेकर इस धरा पर इस मनुज लोक में विचरण कर रहे हैं।
नारी का उदात्त रूप-एक दृष्टि : मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' | २४५
HHHHHHHHHHHHHI
--
H
COM