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साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
जैन पर्व और उसकी सामाजिक उपयोगिता
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--कुवर परितोष प्रचण्डिया
(एम० काम०, रिसर्च स्कॉलर )
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मनुष्य समाज की बुद्धिमान इकाई है। उसमें धर्म और समाज का स्वरूप अन्तर्व्याप्त रहता है। उसकी अन्तश्चेतना को अनुप्राणित करने के लिए अनेक पर्व और त्यौहारों का आयोजन होता है । पर्व में धामिकता और त्यौहार में सामाजिकता का प्राधान्य रहता है। जन-जीवन में आत्मविश्वास, उत्साह तथा क्रियान्वयता का संचार पर्व अथवा त्यौहार द्वारा किया जाता है। पर्न अथवा त्यौहार धर्म और समाज के अन्तर्मानस की सामूहिक अभिव्यक्ति है ।।
किसी जिज्ञासु ने अमुक धर्म अथवा समाज की आधारभूत पृष्ठभूमि जानना चाही तो साधक ने उत्तर देते हुए कहा कि धर्म अथवा समाज के अन्तर्मानस को जानने के लिए उनसे सम्बन्धित पर्व अथवा त्यौहार को जान लेना परम आवश्यक है। प्रत्येक धर्म के शास्त्र-सिद्धान्त और सामाजिक प्रतीकात्मकता पर्व अथवा त्यौहार से विद्यमान रहती है।
जिनधर्म और समाज तथा संस्कृति पर आधत अनेक पर्यों और त्यौहारों का उल्लेख प्राचीन वाङमय में उपलब्ध है। जैन भी वर्ष के किसी न किसी दिन को पर्व का रूप देकर अपने धानिक, सांस्कृतिक स्वरूप का साक्षात्कार करता है।
जैनपर्व जिनधर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके आयोजनों में मात्र खेल-कुद, आमोद-प्रमोद, भोग-उपभोग अथवा सुख-दुःख का संचार नहीं होता अपितु वे हमारे जीवन में तप, त्याग, स्वाध्याय, अहिंसा, सत्य, प्रेम तथा मैत्री की उदात्त भावनाओं का प्रोत्साहन और जागरण करते हैं । पर्वो को मूलतः दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है । यथा१-धार्मिक
२–सामाजिक जिनधर्म पर आधृत धार्मिक पर्यों में संवत्सरी, पर्युषण, आयम्बिल अष्टान्हिका, श्रुतपंचमी आदि उल्लेखनीय हैं जबकि सामाजिक पर्यों में महावीर जयन्ती, वीर-शासन जयन्ती, दीपावलि तथा सलूनों अर्थात् रक्षाबंधन, मौन एकादशी आदि उल्लेखनीय हैं । यहाँ इन्हीं कतिपय पर्वो-उत्सवों का इस प्रकार उल्लेख करना हमें ईप्सित है ताकि उनका रूप-स्वरूप मुखर हो उठे।
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जैन पर्व और उसकी सामाजिक उपयोगिता : कुँवर परितोष प्रचंडिया | २०५