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साध्वीरत्नपुष्पक्ती अभिनन्दन गन्थ
संवत्सरी-संवत्सरी-पर्युषण को पर्व ही नहीं अपितु पर्वाधिराज की महिमा प्रदान की गई है। शास्त्रों के अनुस
अनसार पर्यषण के दिनों में से आठवें दिन संवत्सरी को धर्म का सर्वोच्च स्थान, महिमा तथ मूल्य दिया जाता है । आषाढ़ पूर्णिमा से पचास दिन पश्चात् अर्थात् भाद्र शुक्ला पंचमी को संवत्सरी पर्व का आयोजन किया जाता है । इस पर्व को तीर्थंकर महावीर, गौतमस्वामी, आचार्य, उपाध्याय तथा श्रीसंघ द्वारा मनाए जाने का उल्लेख कल्पसूत्र में उपलब्ध है । आत्मशुद्धि के इस महान पर्व की रात को किसी भी प्रकार से उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
____ संवत्सरी के आठ दिवसों का अनुष्ठान पर्युषण कहलाता है । साधुओं के लिए दश प्रकार का कल्प अर्थात आधार कहा गया है उसमें एक पर्यषणा भी है। परि अर्थात पूर्ण रूप से उषणा अर्थात वसना। अर्थात् एक स्थान पर स्थिर रूप से वास करने को पर्युषणा कहने हैं । पहले यही परम्परा प्रचलित थी कि कम से कम ७०, अधिक से अधिक छह महीने और मध्यम चार महीने । कम से कम सत्तर दिन के स्थिरवास का प्रारम्भ भाद्र सुदी पंचमी से होता है। कालान्तर में कालिकाचार्य जी ने चौथ की परम्परा संचालित की । उसी दिन को संवत्सरी पर्व कहते हैं। आठ दिवसीय आत्मकल्याण का महापर्व कहलाता है पयुर्षण । संवत्सरी और पर्युषण में इतना ही अन्तर है कि संवत्सरी आध्यात्मिक साधना-क्रम में वर्ष का आखिरी और पहले दिन का सूचक है, जबकि पयुवरण है तप और त्याग-साधना का उदबोधक इस प्रकार संवत्सरी का अर्थ अभिप्राय है वर्ष का आरम्भ और पर्युषण का प्रयोजन है कवाय का अशन, आत्मनिवास तथा वैराग्य भावना का चिन्तवन ।
संवत्सरी के सायं प्रतिक्रमण के अवसर पर प्रत्येक जिन-धर्मी को चोरासा लाख जीवायोनि से मन, वचन से तथा काया से क्षमायाचना करनी पड़ती है। इससे परस्पर में मिलन, विश्व मैत्रो, तथा वात्सत्य भावना मुखर हो उठती है । यही इस पर्व का मुख्य प्रयोजन है ।
दिगम्बर समुदाय में इसे दशलक्षश धर्म के नाम से मनाया जाता है। इसमें धर्म के दश लक्षणोंउत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य-का चिन्तवन किया जाता है। यहां यह पर्व भाद्र शुक्ला पंचमी से प्रारम्भ होकर भाद्र शुक्ला चतुर्दशी तक चलता है । अन्त में क्षमावाणी पर्व के रूप में मनाया जाता है जिसमें विगत में अपनी असावधानीवश किसी के दिल को किसी प्रकार से दुखाया हो तो उसकी परस्पर में क्षमा यावना करते हैं । इसकी उपयोगिता अपनी है और आज के राग-द्वेषपूर्ण वातावरण में इस प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन और उनकी उपयोगिता असंदिग्ध है। अष्टान्हिका पर्व तथा आयंबिल-ओली पर्व
दिगम्बर समुदाय में यह पर्व वर्ष में तीन बार मनाया जाता है। क्रमशः कार्तिक, फाल्गुन तथा आषाढ़ मास के अंत के आठ दिनों में इस पर्व का आयोजन हुआ करता है । जिन धर्म में मान्यता है कि इस धरती पर आठ नन्दीश्वर द्वीप हैं । उस द्वीप में वाबन चैत्यालय हैं। वहां मनुष्य की पहुँच नहीं हो पाती, केवल देवगण ही आया-जाया करते हैं। अस्तु इन दिनों यहाँ पर ही पर्व मनाकर उनकी पूजा करली जाती है। इन दिनों सिद्धचक्र पूजा विधान का भी आयोजन किया जाता है । इसकी भक्ति और महिमा अनंत है।
२०६ | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक-सम्पदा
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