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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
रचे जाने का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त 'आलाप पद्धति' इनकी न्याय-विषयक रचना है । एक 'लघुनय चक्र' जिसमें ८७ गाथाओं द्वारा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दो तथा उनके नैगमादि नौ नयों को उनके भेदोपभेद के उदाहरणों सहित समझाया है । दूसरी रचना बृहन्नयचक्र है जिसमें ४२३ गाथायें हैं और उसमें नयों व निक्षेपों का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है । रचना के अन्त की ६, ७ गाथाओं में लेखक ने एक महत्त्वपूर्ण बात बतलाई है कि आदितः उन्होंने दव्वसहाव-पयास ( द्रव्य स्वभाव प्रकाश) नाम के इस ग्रन्थ की रचना दोहा बन्ध में की थी किन्तु उनके एक शुभंकर नाम के मित्र ने उसे सुनकर हँसते हुए कहा कि यह विषय इस छन्द में शोभा नहीं देता, इसे गाथाबद्ध कीजिए । अतएव उसे उनके माल्लधवल नामक शिष्य ने गाथा रूप में परिवर्तित कर डाला । स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप समझने के लिए देवसेन की ये रचनायें बहुत उपयोगी हैं । इन्होंने आराधनासार और तत्त्वसार नामक ग्रन्थ भी लिखे हैं । ये सब रचना आपने धारा में ही लिखीं अथवा अन्यत्र यह रचनाओं पर से ज्ञात नहीं होता है ।
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(E) आचार्य महासेन – आचार्य महासेन लाड़ - बागड़ के पूर्णचन्द्र थे । आचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकरसेन सूरि के शिष्य थे । महासेन सिद्धान्तज्ञवादी, वाग्मी, कवि और शब्दब्रह्म के विशिष्ट ज्ञाता थे । यशस्वियों द्वारा सम्मान्य, सज्जनों में अग्रणी और पाप रहित थे । ये परमारवंशीय राजा मुंज द्वारा पूजित थे । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की सीमा स्वरूप थे और भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले बान्धव सूर्य थे तथा सिंधुराज के महामात्य श्री पर्पट के द्वारा जिनके चरण कमल पूजे जाते थे और उन्हीं के अनुरोधवश 'प्रद्युम्न चरित्र' की रचना विक्रमी ११वीं शताब्दी के मध्य भाग में हुई है
(१०) आचार्य अमितगति द्वितीय- ये माथुर संघ के आचार्य थे और माधवसेन सूरि के शिष्य थे । ये वाक्पतिराज मुञ्ज की सभा के रत्न थे । ये बहुश्रुत विद्वान थे । इनकी रचनाएँ विविध विषयों पर उपलब्ध हैं। इनकी रचनाओं में एक पंच-संग्रह वि० सं० २०७३ में मसूतिकापुर (वर्तमान मसूद विलोदा -धार के निकट) में बनाया गया था । इन उल्लेखों से सुनिश्चित्त है कि अमितगति धारा नगरी और उसके आस-पास के स्थानों में रहे थे । उन्होंने प्रायः अपनी सभी रचनायें धारा में या उसके समीपवर्ती नगरों में प्रस्तुत की । बहुत सम्भव है कि आचार्य अमितगति के गुरुजन धारा या उसके समीपवर्ती स्थानों में रहे हों । अमितगति ने सं० १०५० से सं० १०७३ तक २३ वर्ष के काल में अनेक ग्रन्थों की रचना वहाँ की थी । 4 अमितगतिकृत सुभाषित रत्न संदोह में बत्तीस परिच्छेद हैं जिनमें से प्रत्येक में साधारणतः एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है । इसमें जैन नीतिशास्त्र के विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार किया गया है, साथ-साथ ब्राह्मणों के विचारों और आचार के प्रति इसकी प्रवृत्ति विसंवादात्मक है । प्रचलित रीति के ढंग पर स्त्रियों पर खूब आक्षेप किये गये हैं। एक पूरा परिच्छेद वेश्याओं के सम्बन्ध में है । जैन धर्म के आप्तों का वर्णन २८वें परिछेद में किया गया है और ब्राह्मण धर्म के विषय में कहा गया है कि वे उक्त आप्तजनों की समानता नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्त्रियों के पीछे कामातुर रहते हैं, मद्यसेवन करते हैं
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1. गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ, 544
2. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० 87
3. गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृ० 544-45
4. वही, पृ० 545
प्राचीन मालवा के जैन सन्त और उनकी रचनाएँ : डॉ० तेजसिंह गौड़ | १४१