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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
वर्द्धमान द्वात्रिंशिका स्तोत्र ३२ श्लोकों में भगवान महावीर की स्तुति है। इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है। इसमें प्रासाद गुण अधिक है । भगवान् महावीर को शिव, बुद्ध, ऋषिकेश, विष्णु एवं जगन्नाथ मानकर प्रार्थना की गई है।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका बड़े-बड़े जैनाचार्यों के की है। इसके रचनाकार को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमास्वामि' और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमास्वाति' वतलाते हैं। उमास्वाति के ग्रन्थ की टीका सिद्धसेन दिवाकर ने बड़ी विद्वत्ता के साथ लिखी है । इनका समय ५५०-६०० इस्वी सन् माना गया है।
(५) जिनसेन-आचार्य जिनसेन पुन्नाट सम्प्रदाय आचार्य परम्परा में हुए। पुन्नाट कर्नाटक का ही पुराना नाम है, जिसको हरिषेण ने दक्षिणापथ का नाम दिया है। ये जिनसेन आदिपुराण के कर्ता श्रावक धर्म के अनुयायी एवं पंचस्तूपान्वय के जिनसेन से भिन्न हैं । ये कीर्तिषण के शिष्य थे।
जिनसेन का 'हरिवंश पुराण' इतिहासप्रधान चरितकाव्य श्रेणी का ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की रचना वर्द्धमानपूर, वर्तमान बदनावर जिला धार (म० प्र०) में की गई थी। दिगम्बरीय सम्प्रदाय के कथा संग्रहों में इसका स्थान तीसरा है।
(६) हरिषेण–पुन्नाट संघ के अनुयायियों में एक दूसरे आचार्य हरिषेण हुए। इनकी गुरु परम्परा मौनी भट्टारक श्री हरिषेण, भरतसेन, हरिषेण इस प्रकार बैठती है । आपने कथाकोष की रचना की। यह रचना उन्होंने वर्द्धमानपुर या बढ़वाण-वदनावर में विनायकपाल राजा के राजकाल में की थी। विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा था जिसकी राजधानी कन्नौज थी। इसका ६८८ वि० का एक दानपत्र मिला है। इसके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि० सं० १८६ शक सम्वत् ८५३ में कयाकोष की रचना हई । हरिषेण का कथाकोष साढ़े बारह हजार श्लोक परिमाण का बृहद् ग्रन्थ है । यह संस्कृत पद्यों में रचा गया है और उपलब्ध समस्त कथा कोषों में प्राचीनतम सिद्ध होता है । इसमें १५७ कथायें हैं।
(७) मानतुग-इनके जीवन के सम्बन्ध में अनेक विरोधी विचारधारायें हैं। मयूर और बाण के समान इन्होंने स्तोत्र काव्य का प्रणयन किया। इनके भक्तामर स्तोत्र का श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वाले समान रूप से आदर करते हैं। कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही कि इसके प्रत्येक चरण को लेकर समस्यात्मिक स्तोत्र काव्य लिखे जाते रहे। इस स्तोत्र की कई समस्या पूर्तियाँ उपलब्ध हैं।
(E) आचार्य देवसेन-देवसेनकृत दर्शनसार का वि० सं० ६६० में धारा के पार्श्वनाथ मंदिर में
1. संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी, पृ० 118 2. वही, पृ० 116 3. The Jain Sources of the History of Ancient India, Page 164. 4. The Jain Sources of the History of Ancient India, Page 195 and onward 5. संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ० 351-52 6. अनेकान्त वर्ष 18, किरण 6, पृ० 242 से 246
१४० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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