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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
रहकर ज्ञान प्राप्त करते थे। उस समय आर्य रक्षित सूरि का शिष्य होना महान् भाग्यशाली होने का सूचक माना जाता था । फलतः आपके शिष्यों एवं विद्यार्थियों का कोई पार नहीं था।
इनके पिता का नाम सोमदेव और माता का नाम रुद्रसोमा था। पुरोहित सोमदेव स्वयं भी उच्चकोटि के विद्वान् थे। आर्यरक्षित सूरि के लघुभ्राता का नाम फल्गुरक्षित था जो स्वयं भी इनके कहने से जैन-साधु हो गये थे।
आर्यरक्षित सूरि ने आगमों को चार भागों में विभक्त किया। यथा-(१) करण-चरणानुयोग, (२) गणितानुयोग, (३) धर्म-कथानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग। इसके साथ ही इन्होंने अनुयोगद्वारसूत्र की भी रचना की, जो जैन दर्शन का प्रतिपादक महत्त्वपूर्ण आगम माना जाता है। यह आगम आचार्य प्रवर की दिव्यतम दार्शनिक दृष्टि का परिचायक है।
आर्यरक्षित सूरि का देहावसान दशपुर में हुआ था।
(४) श्री सिद्धसेन दिवाकर-श्री पं० सुखलाल जी ने श्री सिद्धसेन दिवाकर के विषय में लिखा है-“जहाँ तक मैं जान पाया हूँ जैन परम्परा में तर्क का और तर्कप्रधान संस्कृत वाङमय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर ।"3 उज्जैन और विक्रम के साथ इनका पर्याप्त सम्बन्ध रहा है।
___ इनके द्वारा रचित "सन्मतिप्रकरण" प्राकृत में है। जैनदृष्टि और मन्तव्यों को तर्क शैली में स्पष्ट करने तथा स्थापित करने में जैन वाङमय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है । जिसका आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर-दिगम्बर विद्वानों ने लिया है । सिद्धसेन ही जैन परम्परा के आद्य संस्कृत स्तुतिकार है।
श्री ब्रजकिशोर चतुर्वेदी ने लिखा है कि जैन ग्रन्थों में सिद्धसेन दिवाकर को साहित्यिक एवं काव्यकार के अतिरिक्त नैयायिक और तर्कशास्त्रज्ञों में प्रमुख माना है । सिद्धसेन दिवाकर का स्थान जैन इतिहास में बहत ऊँचा है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय उनके प्रति एक ही भाव से श्रद्धा रखते हैं । उनके दो स्तोत्र अत्यन्त प्रसिद्ध है-कल्याण मंदिर स्तोत्र और वर्धमान द्वात्रिंशिका स्तोत्र ।
__ कल्याण मंदिर स्तोत्र ४४ श्लोकों में है। यह भगवान् पार्श्वनाथ का स्तोत्र है। इसकी कविता में प्रासाद गुण कम और कृत्रिमता एवं श्लेष की अधिक भरमार है। परन्तु प्रतिभा की कमी नहीं है। इसके अन्तिम भिन्न छन्द के एक पद्य में इसके कर्ता का नाम कुमुदचन्द्र सूचित किया गया है, जिसे कुछ लोग सिद्धसेन का ही दूसरा नाम मानते हैं। दूसरे पद्य के अनुसार यह २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति में रचा गया है । भक्तामर के सदृश होते हुए भी यह अपनी काव्य-कल्पनाओं व शब्द योजना में मौलिक ही है।
1. श्रीमद् राजेन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ, पृ० 453 2. श्री पट्टावली पराग सग्रह, पृ. 137 3. स्व० बाबू श्री बहादुरसिंह जी सिंधी स्मृति ग्रन्थ, पृ० 10 4. The Jain Sources of the History of Ancient India, Page 150-151 5. संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी, पृ० 117-118 6. (अ) संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी, पृ. 119
(ब) भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० 125-26
प्राचीन मालवा के जैन सन्त और उनकी रचनाएँ : डॉ० तेजसिंह गौड़ | १३६
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