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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
और इन्द्रियासक्त होते हैं ? अमितगतिकृत श्रावकाचार लगभग १५०० संस्कृत पद्यों में पूर्ण हुआ है और वह पन्द्रह अध्यायों में विभाजित है, जिनमें धर्म का स्वरूप, मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का भेद, सप्त तत्त्व, पूजा व उपवास एवं बारह भावनाओं का सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है । आपके योगसार में 6 अध्यायों में नैतिक व आध्यात्मिक उपदेश दिये गये हैं। इनकी अन्य रचनाओं में भावना द्वात्रिंशतिका, आराधना सामायिक पाठ और उपासकाचार का उल्लेख किया जा सकता है। सुभाषित रत्न संदोह की रचना वि० ६६८ में हुई थी और उसके बीस वर्ष पश्चात् उन्होंने धर्म परीक्षा नामक ग्रन्थ की रचना की ।
आचार्य अमितगति की कुछ रचनाओं का उल्लेख मिलता है किन्तु आज वे उपलब्ध नहीं है। ऐसी रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं-(१) जम्बूद्वीप, (२) सार्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति, (३) चन्द्रप्रज्ञप्ति और (४) व्याख्याप्रज्ञप्ति ।
(११) आचार्य माणिक्यनन्दी--आचार्य माणिक्यनन्दी दर्शन के तलदृष्टा विद्वान और त्रैलोक्यनन्दी के शिष्य थे। ये धारा के निवासी थे और वहाँ वे दर्शनशास्त्र का अध्यापन करते थे। इनके अनेक शिष्य थे ।' नयनंदी उनके प्रथम विद्याशिष्य थे। उन्होंने अपने सकल विधि विधान नामक काव्य में माणिक्यनन्दी को महापण्डित बतलाने के साथ-साथ उन्हें प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप प्रमाण जल से भरे और नय रूप चंचल तरंग समूह से गम्भीर उत्तम, सप्तभंग रूप कल्लोलमाला से विभूषित जिनशासन रूप निर्मल सरोवर से युक्त और पण्डितों का चूड़ामणि प्रकट किया है। माणिक्यनन्दी द्वारा रचित एक मात्र कृति परीक्षामुख नामक एक न्यायसूत्र ग्रन्थ है जिसमें कुल २७७ सूत्र हैं। ये सूत्र सरल, सरस और गम्भीर अर्थ द्योतक हैं । माणिक्यनन्दी ने आचार्य अकलंकदेव के वचन समुद्र का दोहन करके जो न्यायामृत निकाला वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का द्योतक है ।'
(१२) नयनन्दी-ये माणिक्यनन्दी के शिष्य थे। ये काव्य-शास्त्र में विख्यात थे। साथ ही प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रश के विशिष्ट विद्वान् थे। छन्द शास्त्र के भी ये परिज्ञानी थे। नयनन्दीकृत "सकल विधि विधान कहा" वि० सं० ११०० में लिखा गया । यद्यपि यह खण्डकाव्य के रूप में है किन्तु विशाल काव्य में रखा जा सकता है। इसकी प्रशस्ति में इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की गई है। उसमें कवि ने ग्रन्थ बनाने के प्रेरक हरिसिंह मुनि का उल्लेख करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जैन-जैनेतर और कुछ सम-सामयिक विद्वानों का भी उल्लेख किया है जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है।11 इनकी दूसरी कृति सुदर्शन चरित्र है । यह अपभ्रंश का खण्डकाव्य है। इसकी रचना वि० सं० ११०० में हुई । यह खण्डकाव्य महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है।
. 1. संस्कृत साहित्य का इतिहास भाग 2, कीथ, पृ. 286-87 2. वही, पृ० 121 3. वही, पृ० 81
4. संस्कृत साहित्य का इतिहास-गैरोला, पृ० 345 5. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग 2, कीथ, पृ० 286-87 6. संस्कृत साहित्य का इतिहास, गैरोला, पृ० 345 7. गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृ० 546
8. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग 1, पृ० 26 9. गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृ० 546 10. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० 64 11. गुरु गोपालदास वरया स्मृति ग्रन्थ, पृ० 547-48 12. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, प० 163
१४२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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