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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
एक संस्मरण का स्मरण हुआ है यहाँ उसी के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करूंगा। एक संत तपश्चरण के उपरान्त नगर में मधुकरी प्राप्त्यर्थ प्रवेश करते हैं। मधुकरी पाकर वे पुनः अटवी को लौटते हैं और तप में लीन हो जाते हैं। यही उनकी दैनिक चर्या रहती है। पूर्णतः विदेही हैं वे । एक बार मधुकरी देते हए उनके एक भक्त ने उनसे भारी प्रार्थना की-महात्मन ! आप अपने हाथों में मधुकरी पाते हैं। मेरे लिए यह अशोभनीय है । मेरी प्रार्थना है कि आप यह रजत-पात्र अंगीकार कर लीजिए और नित्य मधुकरी इसी में प्राप्त कीजियेगा। अनेक बार इंकार करने पर भी अपने भक्त की प्रसन्नतार्थ संत ने उस रजत-पात्र को स्वीकार कर लिया और जब संत को रजत पात्र में मधुकरी पाते देखा तो भक्त प्रफुल्लित हुआ और संत पात्र लेकर अटवी की ओर गमन कर गये। सदा की भांति वह आज भी तप में जाने के "लिए तैयार हुए कि उन्हें रजत-पात्र को कहीं रखने की आवश्यकता हुई। उन्होंने रजत-पात्र को वृक्ष की खोखर में रख छिपाया । तप में बैठ गए। कुछ ही समय पश्चात देखते क्या हैं कि संत का मन परेशान है
और उन्होंने अपनी आँखें खोल ली हैं । वे उठते हैं और खुखाल में जाकर रजत-पात्र की पड़ताल करते हैं। उसे वहीं सुरक्षित रखा पाकर नाहक दाह में जलने लगते हैं। आज संत सामायिक में एकाग्रचित्त न हो सके, रजत-पात्र ने बाधा उत्पन्न कर दी। विचार करें कि हमारे अन्तर्मन की पवित्रता में ऐसे कितने रजत-पात्र व्यवधान रूप हैं ? भूत का भय और भविष्य की चिन्ता व्यक्ति को निरर्थक आकुल-व्याकुल बनाती है । गंगा स्नान व्यर्थ है । शास्त्र-सामायिक में जाना सिड़ीपंती है यदि हमारा अन्तरंग लोभ कषाय से संपूर्णतः कषा है । लोभ विसर्जन वस्तुतः वृत्ति का पवित्र आमंत्रण है ।18
इस प्रकार कषाय कौतुक कितने कुटिल और कुचाली है कि प्राणी को वास्तविकता से दूर सुदूर कर देते हैं। प्रेम, प्यार और प्रतीति जैसी उदात्त अवस्थाओं से जीव को वंचित कराने का श्रेय कषाय को ही है । विचार करें कि राग-द्वेष वस्तुतः विषवृक्ष हैं । वासना और कषाय से राग-द्वेष की सर्जना होती है। माया कषाय तथा लोभ कषाय से आसक्ति, आसक्ति से राग एवं क्रोध तथा मान कषाय से घृणा और घृणा से द्वष उत्पन्न होता है । घृणा और आसक्ति ने ही वैर तथा ममता को प्रोत्साहन दिया है। आज सारा संसार वासना और कषाय की अग्नि में धधक रहा है । इस प्रज्वलन से यदि किसी को मुक्ति पाना है तो उसे विशुद्ध भावना से श्रुत साहित्य, ब्रह्मचर्य तथा तप का परिपालन विवेक और विज्ञान के साथ करना होगा। विचार करें कि क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया से मैत्री मिटती है और लोभ से सभी सद्गुणों का विनाश होता है। इस प्रकार कषाय हमारा सर्वनाश करती है। इसके विपरीत शान्ति से क्रोध को, मृदुता से मान को, सरलता से माया को तथा सन्तोष से लोभ कषाय को जीतना ही सच्ची पुरुषार्थ-साधना मानी गई है।
विचारप्रधान प्राणी की तीन आत्मिक अवस्थाएँ मानी गई । यथा(१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा
) परमात्मा बहिरात्मा में जीव पर-पदार्थ को ही स्व-आत्म पदार्थ मान बैठता है। उसी में लीन होकर अनादिकाल से जन्म-मरण के चंक्रमण में सक्रिय रहता है ।20 बहिरात्मा को आत्मा के भिन्न स्वरूप का श्रद्धान नहीं होता और इसीलिए उसे न तो आत्मा के अजर-अमर तथा अविनाशी होने का विश्वास है और न ही परलोक में आत्मा के आवागमन का श्रद्धान, जहाँ अपने-अपने कर्म का फल प्राप्त करती है। संसार में लीन-प्राणियों की यही दशा है, वे इस मनूष्य शरीर को ही अपना सर्वस्व समझते हैं। शरीर के जन्म को अपना जन्म एवं शरीर के मरण को वे अपना मरण समझते हैं। पाँचों इन्द्रियों के विषय-भोगों में ही वे सच्चा सुख समझते हैं । विषय-भोगों में जो-जो सहायक होते हैं उनसे उसकी प्रगाढ़ प्रीति होती है। १२८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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