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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ । रहती है। कहते हैं कि बारहवें गुणस्थान के उत्तरार्द्ध में लोन कषाय का समापन हो पाता है, तभी प्राणी तेरहवें गुणस्थान में आरोहण करके वीतरागी बनता है। यही जीव की सर्वज्ञता की अवस्था कहलाती है ।
लोभ कषाय की सोलह अवस्थाएँ उल्लिखित हैं । यथा(१) लोभ (२) इच्छा
(३) मूर्छा (४) कांक्षा (५) गृद्धि
(६) तृष्णा (७) मिथ्या (८) अभिध्या
(8) आशंसना (१०) प्रार्थना
(११) लालचपनता (१२) कामाशा (१३) भोगाशा
(१४) जीविताशा (१५) मरणाशा (१६) नन्दिराग
संग्रह करने की वृत्ति से लोभ, अभिलाषा से इच्छा, तीव्रता की संग्रह वृत्ति से मूर्छा, प्राप्त करने की इच्छा से कांक्षा, प्राप्त वस्तु में आसक्ति होने से गृद्धि, जोड़ने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति से तृष्णा, विषयों का ध्यान से मिथ्या, निश्चय से डिग जाना वस्तुतः अभिध्या, इष्ट प्राप्ति की इच्छा करने से आशंसना, अर्थ आदि की याचना से प्रार्थना, चाटुकारिता से लालचपनता, काम की इच्छा से कामाशा, भोग्य पदार्थों की इच्छा से भोगाशा, जीवन की कामना से जीविताशा, मरने की कामना से मरणाशा तथा प्राप्त सम्पत्ति में अनुराग से नन्दिराग नामक लोभ कषाय की सोलह अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं।
सामान्यतः जिनवाणी में उल्लिखित है कि नारकी जीवों में क्रोध की प्रधानता रहती है, तिर्यंचों में माया का अतिशय, मानवों में मान कषाय का उत्कर्ष रहता है तथा देवों में लोभ कषाय की प्रचुरता रहती है। इन्हीं कषायों की तीव्रता रहने से प्राणी अपने नये जन्म में कर्मानुसार नाना पर्यायों में आया-जाया करते हैं। . आचार्य अकलंक ने लोभ के तीन प्रकार कहे हैं यथा-15 (१) जीवन लोभ (२) आरोग्य लोभ
(३) उपयोग लोभ और आचार्य अमृतचन्द्र ने लोभ के चार प्रकार कहे हैं यथा-16 (१) भोग
(२) उपयोग (३) जीवन भोग
(४) इन्द्रियों और उनके विषयों का भोग लोभी व्यक्ति क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी क्रोध नहीं करता और मानापमान का भी विचार नहीं करता। वह योगियों की भांति इन्द्रियों का दमन कर सकता है, सुख तथा बासना का त्याग कर सकता है । यदि कुछ प्राप्त होने की आशा हो तो वह दस गालियां भी सहन कर सकता है। करुण स्वर सुनकर भी उसका हृदय पसीजता नहीं, न वह तुच्छ व्यक्ति के सामने दीन बनकर हाथ पसारने से संकोच ही करता है।"
__ क्रोध कषाय शान्त हो जाये तो अन्य तीन कषायों की उपस्थिति बनी रहती है पर यदि लोभ कषाय का शमन हो जाये तो सभी कषाय-कुलों का नाश हो जाता है । इसलिए लोभ को पाप का वाप कहा गया है।
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कषाय कौतुक और उससे मुक्ति : साधन और विधान : डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया | १२७