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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
__ आज के सभ्यता प्रधान युग में आस्था का अभाव और व्यवस्था का प्रभाव उत्कर्ष को प्राप्त है। आस्था अन्तरंग की जागृति से सम्बन्धित है इससे जीवन में सरलता उत्पन्न होती है। जवकि व्यवस्था बाहरी वस्तु है इससे जीवन में कुटिलता और जटिलता का प्राधान्य रहता है। विचार करें, व्यवस्था के परिणामस्वरूप आज हर घर में ड्राइंगरूम है पर हर घर ड्राइंगरूम नहीं है । एक ही कमरा साफ-सुथरा है, सज्जित है, शेष कमरे कुचले हैं, मैले हैं । आगत को ड्राइंगरूम में ही बिठलाया जाता है । उसके पूरे घर की सफाई-सुघराई वहीं से आँकी जाती है । पर वास्तविकता कुछ और ही होती है। इसी व्यवस्था-व्यवहार में माया मुखर हो उठती है। ..
___ मायाचारी के चित्त में अद्भुत कार्यक्रमों का संचालन होता रहता है। उसका प्रत्येक कार्य मायामय होता है। राजस्थान के एक मंदिर में मेरा जाना हुआ था। अनेक प्रभु-प्रतिमाएँ वहाँ प्रतिष्ठित थीं। पुजारी कम किन्तु दर्शनार्थी अधिक थे। संयोग से मेरे देखने के समय मन्दिर जी में केवल एक पुजारी पूजा करते मिले थे। मुझे आते देखकर उन्होंने प्रभु-पूजन जोर-जोर से करना प्रारम्भ कर दिया था। उनके द्वारा आकर्षक शारीरिक मुद्राएँ भी प्रदर्शित हो उठी थीं। इस सारे परिवर्तन को देखकर मैंने कहा था-मेरे भाई, मुझे आते देखकर आपने पूजन जोर-जोर से करना क्यों प्रारम्भ कर दिया था? क्या आप को अपने आराध्य देव के बधिर होने की सूचना मुझे देनी थी ? वे उत्तर में मात्र मुसकराए थे, बोले कुछ भी नहीं । विचार करें, आज की उपासना में भी मिलावट है माया की। मायावी इन्सान स्वयंबोध से वंचित है । वह सोया हुआ है और यदि तोया हुआ किसी जगे को जगाये तो इससे बड़ी मखौल और क्या होगी ?13
हमारी धार्मिक क्रियाएँ भी माया-मोह से न बच सकी तो अन्य नाना सांसारिक व्यवहारों की क्या स्थिति होगी ? हमारे अन्तरंग की आस्था जैसे कहीं लुक-छिप गई है और हम पूर्णतः व्यवस्था के अधीन हो गये हैं । परिणामस्वरूप हमारा प्राकृत जीवन अप्राकृत अर्थात् बनावटी हो गया है।
__ जब कोई विदेशी हमारे देश में आते हैं तो व्यवस्था द्वारा उन्हें देश के उन्हीं भागों में घुमने की प्रेरणा और अनुमति दी जाती है जो पूरी तरह से व्यवस्थित हैं, जिन्हें देखकर देश की गरिमा का वर्द्धन होता है। धारणा बनती है कि देश चरम उत्कर्ष को प्राप्त है, पर वास्तविकता इससे भिन्न ही होती है । आज जरा और सावधानीपूर्वक विचार करें कि पूरे दिन बाहर डोलने वाला कामकाजी जब किसी दावत में सम्मिलित होता है तब वह वेस्ट ऑफ दी ट्रंक अर्थात् उत्तमोत्तम कपड़े धारण करता है। उसकी भावना रहती है कि उसका जीवन स्तर श्रेष्ठ प्रमाणित हो । जो भीतर से श्रेष्ठ नहीं है वह श्रेष्ठ होने के लिए व्यवस्थित होने की टोह में रहता है । इस प्रकार की है मायावी चर्या । इससे एक बार चाहे व्यक्ति बाहरी परिधि पर प्रतिष्ठित हो जावे किन्तु अन्तरंग-केन्द्र में अभाव की अकुलाहट से वह प्रभावित होता है। क्योंकि अभाव में ही प्रभाव के दर्शन हुआ करते हैं । माया कषाय मिटे तभी जो है वह मुखर हो उठेगा जिससे व्यक्ति को आत्मिक तोष और संतोष मिलेगा, अकुलाहट का अन्त होगा। लोभ कषाय
लोभ सारे बंधनों का मुख्याधार है। मोहनीयकर्मोदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा अथवा लालसा वस्तुतः लोभ कहलाती है । लोभ कषाय क्रोध, मान और माया नामक कषायों से भी तीव्र और सतेज होती है। प्रारम्भिक कषायें चाहे मन्द और शान्त हो जाएँ परन्तु लोभ कषाय फिर भी शेष १२६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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