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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
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इसीलिए वह अपनी स्त्री से बहुत राग करता है और होता है पुत्र-पौत्रों का अत्यन्त मोही । धन-धान्य का उपार्जन भी इसलिए करता है कि अपने कुटुम्ब के साथ वह निधि भोग भोगे ।
इस प्रकार मिथ्या बुद्धि के कारण ही वह अज्ञानी स्त्री-पुत्र आदि के होते हुए अपने को सम्पत्तिवान समझता है। दिन-रात उन्हीं की चिन्ता में फंसा रहता है । कुटुम्ब की विषय-कामनाओं की पूर्ति करता और उनके मोह में उनको हर तरह अनुकुल बनाने के उपाय करता हआ स्वयं बद्धता प्राप्त करता है। इस प्रकार उसकी लालसा का अन्त नहीं हो पाता और अन्त में आयु बिताकर अपनी पर्याय छोड़ता है, विलाप करता है कि हाय मैं अमुक काम किए बिना ही चल दिया, यदि पौत्र के दर्शन कर लेता, उसके कतिपय कौतुक और देख लेता तो मेरा जन्म सफल हो जाता।
जरा विचार करें, ये अज्ञानी जीव भोग की तृष्णा में ही अपने दुर्लभ मनुष्यजन्म को नष्ट कर देते है । मानव जन्म पाने का कुछ भी सुफल ये प्राप्त नहीं कर पाते और राग-द्वेष, मोह से तीव्र कर्म बांध कर दुर्गति को प्राप्त करते हैं । सच्चे धर्म को, सच्चे आत्म-स्वरूप को, सच्चे सुख को न पहचान कर ये बेचारे अज्ञान के कारण अपनी आत्मिक सुख-शान्ति के भण्डार से सर्वथा वंचित रहते हैं और पुनः-पुनः सांसारिक अर्णव में अवगाहन करते रहते हैं ।
देह में आत्म-बुद्धि रखने तथा आत्मा में आत्म-बुद्धि न करने से ही इस जगत की सारी वहिरात्माओं की ऐसी दुर्दशा हो रही है । कर्म का चक्र विचित्र है । कर्म कौतुक ईथर की भांति प्रतिध्वनिवाद जैसा है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा जो ऊर्जा ध्वनि निसृत होती है वह अन्ततः ईथर से जा टकराती है। अपने स्वभाव से वह वहाँ से लोटकर पूनः उसो स्थान को आतो है, जहाँ से वह चली थी। मान लीजिए, किसी प्राणी ने क्रोध में किसी को गालो दी तो वह ईथर से जा टकराती है और वहां से लौटकर वह दाता के पास लौटकर जब आती है तब ग्रहण करने में कितना कष्ट होता है, यह वस्तुतः कहने का कम अपितु अनुभव करने का अधिक विषय है । इसी प्रकार कर्मपक्ष जब अपने उदय में आते हैं तब कर्मी दुःखसख की अनुभूति करता है। इस सारी प्रक्रिया को अपनी नासमझी के कारण अज्ञानी प्राणी क्रोध, मान. माया और लोभ जैसी कषायों से निरन्तर अनुप्राणित करता रहता है । कषायों के कौतुक बड़े विचित्र हैं। दूसरों पर क्रोध करते हुए क्रोधी अपने इस पुरुषार्थ को सार्थक समझकर सुखी होता है । अमुक पर खूब क्रोव किया और उसे पर्याप्त कष्टायित कर प्रतिकार लिया जा सका है, पर, भला प्राणी यह नहीं जानता है कि क्रोध कषाय की वर्गणा लौटकर प्रतिकारी स्वाद से स्वयं को आस्वादित करेगी। यदि यह सत्य और तथ्य जाना जा सके तो फिर कौन ऐसा-निरीह प्राणी होगा जो क्रोध को पर और स्व के लिए आमंत्रित करे।
उपाधि वस्तुतः बोझ है। इसको जितना अधिक उत्कर्षित किया जाएगा कर्ता उतना ही अधिक स्वयं को बोझिल बनाएगा। जागतिक सम्पन्नता में सामान्यतः अपार आकर्षण होते हैं । अज्ञानी इन्हीं आकर्षणों में भ्रमित होकर नाना प्रकार के मान-अभिमान में लीन हो जाता है । मान मिलते रहें अथवा अभिमान सन्तुष्ट होते रहें तो प्राणी जघन्य कष्टों में भी जीने की स्वीकृति दे देता है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मान की महिमा अनंत है। मान के कौतुक में अद्भुत प्रकार का आकर्षण है। विचारें, जो नहीं है उसका यदि आरोपण किया जाए तो अभाव को क्षणिक सन्तोष मिलता है। किसी कान्स्टेबुल को यदि दीवान जी कह दिया जाए तो उससे अनर्थ कराने में अनुकूलता पाई जा सकती है।
कषाय कौतुक और उससे मुक्ति : साधन और विधान : डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया | १२६