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साध्वी रत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
ओहारइत्ता (बारम्बार निश्चयात्मक भाषा बोलना ), (११) पिट्ठिमंसिए ( पैशुन्य करना), (१२) णवाणं अधिकरगाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाइत्ता (नवीन नवीन विवादों को उत्पन्न करने वाला), (१३) पोराणाणं अधिकरणाणं खमिअविउसविआणं पुणोदीरित्ता ( पुराने शान्त झगड़ों को पुनः खड़ा कर देना), (१४) अकाल सज्झाय कारए ( अकाल में स्वाध्याय करना), (१५) ससरक्ख पाणिपाए (सारक्त गृहस्थ से भिक्षा लेना), (१६) सद्दकरे ( उच्च स्वर से स्वाध्याय करना), (१७) झंझकरे ( संघ में विभेद पैदा करना ), (१८) कलहकरे, (१६) सूरप्पभाणभोई (सूर्यास्त तक भोजन करना), (२०) एसणाऽसमिते ( एषणा समिति का पालन न करना) । 16 इनमें से कुछ असमाधिस्थानों की तुलना पातिमोक्ख के सेखिय ( शैक्ष्य) नियमों के साथ और कुछ की पाचित्तिय नियमों के साथ तुलना कर सकते हैं। इसी प्रकार जैन विनय के शवल दोषों का भी संघादिशेष और पाचित्तिय नियमों में खोजा जा सकता है ।
जैन-बौद्ध श्रमण श्रमणी की विनयगत विशेषताओं को हम नीचे मात्र शाब्दिक तुलना के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं
जैन श्रमण विनय
(१) गृहवासपरित्याग (२) मुण्डन - केशलुञ्चन अपवाद में उस्तरा से
(३) दिगम्बरत्व
(४) काषाय और सफेद वस्त्र
(५) मूलगुण (६) पंच समिति
(८) महाव्रतपालक
(६) त्रिगुप्तिपालक (१०) अप्रमादी
(११) संयमी
(१२) रत्नत्रय संपन्न
(१३) प्रतिक्रमण
(१४) वर्षावास
(१५) असमाधिस्थान - २०-१-३
रातिणि अपरिभासी
भूओवघाइ
संजलणे
पिट्ठिमंसिए
अभिक्खणं २ ओहारयत्ता
16. समवायांग 20; दशाश्रु स्कन्ध 1; उत्तराध्ययन, 31/14 ११६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
बौद्ध श्रमण विनय
गृहवासपरित्याग
मुण्डन आवश्यक पर केशलुञ्चन वर्जित अस्वीकार्य
काषाय वस्त्र
प्रातिमोक्ष संवरशील गोचर सम्पन्न, कुशल
कायवचन - कर्म परिशुद्ध
महाशील पालक
कायवचन कर्मयुक्त तथा चित्तविशुद्धि
स्मृतिमान्
इन्द्रगुप्त
प्रज्ञा, शील, समाधि संपन्न
प्रातिमोक्ष
वर्षावास
सेखिय ११-२०
पाचित्तिय २ - ओमसवादे पाचित्तिय ११ (भूतगामपातव्यताप )
पाचित्तिय १३ – उज्झापने
पाचित्तिय ३ - पेसु
पाचित्तिय ३६ भुत्तावि पुन पवारणे, ३७ भी
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