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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
और अनन्तवीर्य से युक्त है । जव तक यह बाह्य क्रियाओं में लगा रहता है तब तक उसके यह गुण आच्छादित ही रहते हैं और जब कर्मों का आवरण हट जाता है तब वही आत्मा इन गुणों से युक्त होकर परमात्म रूप को प्राप्त कर लेता है। आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था का नाम ही जैनदर्शन में परमात्मा कहा गया है।
__ आदिपुराणकार ने आत्मा को ज्ञानयुक्त कहा है ।। ज्ञान आत्मा का निज गुण है, आगन्तुक गुण नहीं है । तत्त्वज्ञ पुरुष उन्हीं तत्त्वों को मानते हैं, जो सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे हुए हों 12 मोक्ष
भौतिकवादी चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन मोक्ष के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। और सभी ने दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति के कारण को मोक्ष कहा है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग के अनुसार दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद हो जाने का नाम मोक्ष है और यह तत्त्वज्ञान से ही होता है । मीमांसा दर्शन भी दुःख के आत्यन्तिक अभाव को मोक्ष मानता है । वेदान्त दर्शन ने जीवात्मा और ब्रह्म के एकीभाव को मोक्ष कहा है । विशुद्ध सत्, चित् और आनन्द की अवस्था ही ब्रह्म है । और यह अवस्था अविद्या रूप बन्धन के कारण के समाप्त होने पर ही प्राप्त होती है। बौद्ध ने निर्वाण को माना है। यह सब प्रकार के अज्ञान के अभाव की अवस्था है। धम्मपद में निर्वाण को एक आनन्द की अवस्था, परमानन्द, पूर्ण-शांति, लोभ, घृणा तथा भ्रम से मुक्त कहा है।
जैनदर्शन ने आत्मा की विशुद्ध अवस्था को मोक्ष कहा है। समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से अनन्तसुखरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है और यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप साधन से प्राप्त होता है । इस अवस्था में वह अनन्त चैतन्यमय गुण से युक्त हो जाता है। इस अवस्था में इस आत्मा का न तो अभाव होता है, न ही अचेतन, न ही दीपक की तरह आत्मा का बुझना निर्वाण है। किसी भी 'सत्' का विनाश नहीं होता इसलिए आत्मा का अभाव नहीं हो सकता । कर्मपुद्गल परमाणुओं के छूट जाने पर ही मोक्ष होता है । इस अवस्था में आत्मा निज स्वरूप में अवस्थित रहता है।
कर्म और पुनर्जन्म के विषय को भी चार्वाक को छोड़कर सभी ने स्वीकार किया है। भारतीय दर्शन का कर्मसिद्धान्त शाश्वत नियम पर आधारित है। और इस नियम के अनुसार शुभाशुभ कर्मों के फल को भोगना पड़ता है तथा बँधे हुए कर्मों के अनुसार पृथक्-पृथक् पर्यायों में जीव की उत्पत्ति होती है। संसाररूप अवस्था में जन्म मरण का चक्र वराबर चलता रहता है। इसके अभाव में जीव स्वतन्त्र हो जाता है।
आचार्य जिनसेन ने जीव की अवस्था के लिए स्वतन्त्रता और परतन्त्रता इन दो शब्दों का प्रयोग किया, जो अपने आप में नवीनतम हैं। उन्होंने बतलाया कि "संसार में यह जीव किसी प्रकार स्वतन्त्र नहीं है, क्योंकि कर्मबन्धन के वश में होने से यह जीव अन्य के आश्रित होकर जीवित रहता है, इसलिए वह परतन्त्र है । जीवों की इस परतन्त्रता का अभाव होना ही स्वतन्त्रता है । अर्थात् कर्मबन्धन जीव के परतन्त्रता के कारण कहे जा सकते हैं और कर्मबन्धनरूप परतन्त्रता (संसार) का अभाव जीव की स्वतन्त्रता (मोक्ष) का परिचायक है।
.. 1. आदिपुराण 5/68
3. धम्मपद-202-3
2. आदिपुराण 5/85 4. आदिपुराण 42/79-81
७६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य