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साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
गुणों से युक्त होने के कारण ईश्वर कहा जा सकता है, पर यह ईश्वर जगत् का कर्ता, हर्ता नहीं जैसा कि __ अन्य वैदिक दर्शनों में माना गया है।
जगत् का अस्तिव सभी भारतीय दर्शन जगत् को सत्य मानते हैं । न्याय-वैशेषिक जगत् को सत्य मानकर दिक् में अवस्थित मानते हैं। उनका कहना है कि जगत् की उत्पत्ति परमाणुओं से हुई है और ईश्वर ने ही इन जगत् के परमाणुओं की उत्पत्ति की है। इसलिए ईश्वर की तरह जगत् के परमाणु भी अनादि और अनन्त हैं । सांख्य-योग सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों को प्रकृति के परिणाम कहते हैं । ये परिणाम सत्यरूप हैं। अतः जगत् भी सत्य है। मीमांसादर्शन भी न्याय-वैशेषिक की तरह जगत् को सत्य मानते हैं । वेदांत ने व्यावहारिक दृष्टि से जगत् को सत्य माना है । बौद्ध-जैन भी जगत् को नित्य मानते हैं।
___ जैनदर्शन जगत् को जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः द्रव्य रूप मानता है। ये छह द्रव्य नित्य हैं इसलिए यह जगत् भी नित्य है, इसे किसी ईश्वर ने नहीं बनाया, न ही इसका कभी नाश हो सकता है । न्याय-वैशेषिक की इस दृष्टि को अवश्य ध्यान में रखा जा सकता है कि उन्होंने जगत् को परमाणुओं से निर्मित बतलाया है। जैनदर्शन भी परमाणु को मानता है, पर पदगल परमाणओं की उत्पत्ति ईश्वर ने की है ऐसा कदापि नहीं मानता। परन्तु इतना तो अवश्य माना जा सकता है कि यह दृश्यमान जगत् किन्हीं न किन्हीं पदार्थों के संयोग से अवश्य बना हुआ है, वे पदार्थ या द्रव्य कौन से हैं इसका उल्लेख पूर्व में ही किया गया है।
विश्व (जगत्) के समस्त पदार्थ किसी न किसी रूप में अवश्य बने रहते हैं, इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि जगत् अवश्य है और इस जगत् में जीव और पुद्गल की क्रियायें भी देखी जाती हैं, इनकी क्रियाओं के निमित्त कारण धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य हैं। इसलिए जैनदर्शन इन द्रव्यों के समूह को 'जगत्' 'लोक' या विश्व कहता है ।
आत्मा का अस्तित्व भारतीय दार्शनिक आत्मा को किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार करते हैं। न्याय-वैशेषिक आत्मा को नित्य मानता है और इसे ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता स्वीकार करता है तथा ज्ञान को वे आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं । जैनदर्शन ज्ञान को आत्मा का ही गुण मानता है । न्याय-वैशेषिक जब आत्मा का मन और शरीर से संयोग होता है तभी उसमें चैतन्य की उत्पत्ति होती है, ऐसा मानते हैं। मीमांसादर्शन का मत भी यही है । वह भी चैतन्य और ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण मानता है तथा सुख-दुःख के अत्यन्त विनाश होने पर आत्मा अपनी स्वाभाविक मोक्ष अवस्था को प्राप्त कर लेता है, इस समय आत्मा चैतन्य रहित हो जाता है । सांख्य-योग चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता, अपितु चेतनस्वरूप मानता है । आत्मा (पुरुष) अकर्ता है, वह सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित है । प्रकृति अपने आपको तदाकार करने के कारण सुख-दुःख रूप है और यही सतत् क्रियाशील है। और पुरुष शुद्ध चैतन्य और | ज्ञानस्वरूप है। वेदान्तदर्शन आत्मा को ही सत्य मानता है, जो सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है। अवैदिक दर्शनों में चार्वाक आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता है, वह तो केवल चैतन्य-युक्त शरीर को ही सब कुछ मानता है । बौद्ध अनात्मवादी है वह आत्मा को अनित्य मानता है। शून्यवाद विज्ञानवादी का कहना है कि आत्मा क्षणिक है, विज्ञान-संतान मात्र है। जो क्षण-क्षण में जल के बबूले की तरह परिवर्तनशील है । लेकिन जैनदर्शन आत्मा को नित्य मानता है । यह अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख
आचार्य जिनसेन का दार्शनिक दृष्टिकोण : डॉ० उदयचन्द्र जैन ! ७५
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