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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रतिज्ञा' यह कहकर उसमें 'अविरोधी' पद के द्वारा प्रत्यक्ष-विरुद्ध आदि पांच विरुद्धसाध्यों (साध्याभासों) का भी निरास किया है । न्यायप्रवेशकार149 ने भी प्रशस्तपाद का अनुसरण करते हुए स्वकीय पक्षलक्षण में 'अविरोध' जैसा ही 'प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध' विशेषण किया है और उसके द्वारा प्रत्यक्षविरुद्धादि साध्याभासों का परिहार किया है।
न्यायप्रवेश143 और माठरवृत्ति144 में पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन अवयव स्वीकृत हैं। धर्मकीर्ति145 ने उक्त तीन अवयवों में से पक्ष को निकाल दिया है और हेतु तथा दृष्टान्त ये दो अवयव माने हैं। न्यायबिन्दु और प्रमाणबार्तिक में उन्होंने केवल हेतु को ही अनुमानावयव माना है146 ।
मीमांसक विद्वान् शालिकानाथ ने प्रकरणपंचिका में, नारायण भट्ट48 ने मानमेयोदय में और पार्थसारथि149 ने न्यायरत्नाकर में प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवों के प्रयोग को प्रतिपादित किया है।
जैन ताकिक समन्तभद्र का संकेत तत्त्वार्थसूत्रकार के अभिप्रायानुसार पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवों को मानने की ओर प्रतीत होता है। उन्होंने आप्तमीमांसा (का०६, १७, १८, २७ आदि) में उक्त तीन अवयवों से साध्य-सिद्धि प्रस्तुत की है। सिद्धसेन 160 ने भी उक्त तीन अवयवों का प्रतिपादन किया है। पर अकलंक161 और उनके अनुवर्ती विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि ,देवसूरि54, हेमचन्द्र15", धर्मभूषण , यशोविजय 57 आदि ने पक्ष और हेतु ये दो ही अवयव स्वीकार किये हैं और दृष्टान्तादि अन्य अवयवों का निरास किया है। देवसूरि158 ने अत्यन्त व्युत्पन्न की अपेक्षा मात्र हेतु के प्रयोग को भी मान्य किया है । पर साथ ही वे यह भी बतलाते हैं कि बहुलता के एक मात्र हेतु का प्रयोग न होने से उसे सत्र में ग्रथित नहीं किया। स्मरण रहे कि जैन-न्याय में उक्त दो अवयवों का प्रयोग व्युत्पन्न प्रतिपाद्य की दृष्टि से अभिहित है किन्तु अव्युत्पन्न प्रतिपाद्यों की अपेक्षा से तो दृष्टान्तादि अन्य अवयबों का भी प्रयोग स्वीकृत है159 | देवसरि180, हेमचन्द्र,181 और यशोविजय182 ने भद्रबाहकथित पक्षादि पाँच शुद्धियों के भी वाक्य में समावेश का कथन किया और उनके दशावयवों का समर्थन किया है।
अनुमान-दोष अनमान-निरूपण के सन्दर्भ में भारतीय ताकिकों ने अनमान के सम्भव दोषों पर भी विचार किया है। यह विचार इसलिए आवश्यक रहा है कि उससे यह जानना शक्य है कि प्रयुक्त अनुमान सदोष है या निर्दोष ? क्योंकि जब तक किसी दोष के प्रामाण्य या अप्रामाण्य का निश्चय नहीं होता तब तक वह ज्ञान अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि या असिद्धि नहीं कर सकता। इसी से यह कहा गया है163 कि प्रमाण से अर्थ संसिद्धि होती है और प्रमाणाभास से नहीं । और यह प्रकट है कि प्रामाण्य का कारण गुण है और अप्रामाण्य का कारण दोष । अतएव अनुमानप्रामाण्य के हेतु उसकी निर्दोषता का पता लगाना बहुत आवश्यक है। यही कारण है कि तर्क-ग्रन्थों में प्रमाण-निरूपण के परिप्रेक्ष्य में प्रमाणा: भास निरूपण भी पाया जाता है। न्यायसत्र164 में प्रमाणपरीक्षा प्रकरण में अनुमान की परीक्षा करते हुए उसमें दोषांश का और उसका निरास किया गया है । वात्स्यायन186 ने अननुमान (अनुमानाभास) को अनुमान समझने की चर्चा द्वारा स्पष्ट बतलाया है कि दूषितानुमान भी सम्भव है ।
अब देखना है कि अनुमान में क्या दोष हो सकते हैं और वे कितने प्रकार के सम्भव हैं ? स्पष्ट है कि अनुमान का गठन मुख्यतया दो अंगों पर निर्भर है-१ साधन और २ साध्य (पक्ष)। अतएव दोष भी साधनगत और साध्यगत दो ही प्रकार के हो सकते हैं और उन्हें क्रमशः साधनाभास तथा साध्याभास (पक्षाभास) नाम दिया जा सकता है । साधन अनुमान-प्रासाद का वह प्रधान एवं महत्वपूर्ण स्तम्भ है जिस पर उसका भव्य भवन निर्मित होता है। यदि प्रधान स्तम्भ निर्बल हो तो प्रासाद किसी भी क्षण क्षतिग्रस्त एवं धराशायी हो सकता है । सम्भवतः इसी से गौतम166 ने साध्यगत दोषों का विचार न कर मात्र साधनगत दोषों का विचार किया और उन्हें अवयवों की तरह सोलह पदार्थों के अन्तर्गत स्वतन्त्र पदार्थ (हेत्वाभास) का स्थान प्रदान किया है । इससे गौतम की दृष्टि में उनकी अनुमान में प्रमुख
जैन-न्याय में अनुमान-विमर्श : डॉ० दरबारीलाल कोठिया | ६३
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