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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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धर्मी साध्यधर्म के आधार रूप से, क्योंकि किसी आधार-विशेष में साध्य की सिद्धि करना अनुमान का प्रयोजन है। 2. सच यह है कि केवल धर्म की सिद्धि करना अनुमान का ध्येय नहीं है, क्योंकि वह व्याप्ति-निश्चयकाल में ही अवगत हो ।
जाता है और न केवल धर्मो की सिद्धि अनुमान के लिए अपेक्षित है, क्योंकि वह सिद्ध रहता है । किन्तु 'पर्वत अग्निवाला है' इस प्रकार पर्वत में रहने वाली अग्नि का ज्ञान करना अनुमान का लक्ष्य है । अतः धर्मी भी साध्यधर्म के आधार रूप से अनुमान का अंग है । इस तरह साधन, साध्य और धर्मी ये तीन अथवा पक्ष और हेतु ये दो स्वार्थानमान तथा परार्थानुमान दोनों के अंग हैं । कुछ अनुमान ऐसे भी होते हैं जहाँ धर्मी नहीं होता। जैसे-सोमवार से मंगल का अनुमान आदि । ऐसे अनुमानों में साधन और साध्य दो ही अग हैं ।
उपर्युक्त अंग स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानुमान के कहे गये हैं। किन्तु वचनप्रयोग द्वारा प्रतिवादियों या प्रतिपाद्यों को अभिधेय प्रतिपत्ति कराना जब अभिप्रेत होता है तब वह वचनप्रयोग परार्थानुमान-वाक्य के नाम से अभिहित होता है और उसके निष्पादक अंगों को अवयव कहा गया है । परार्थानुमानवाक्य के कितने अवयव होने चाहिए, इस सम्बन्ध में ताकिकों के विभिन्न मत हैं। न्यायसूत्रकार का मत है कि परार्थानुमानवाक्य के पांच अवयव हैं१. प्रतिज्ञा, २. हेतु, ३. उदाहरण, ४. उपनय और ५. निगमन। भाष्यकार132 ने सूत्रकार के उक्त मत का न केवल समर्थन ही किया है, अपितु अपने काल में प्रचलित दशावयव मान्यता का निरास भी किया है। वे दशावयव हैंउक्त पाँच तथा ६. जिज्ञासा, ७. संशय, ८. शक्यप्राप्ति, ६. प्रयोजन और १०. संशयव्युदास ।
यहाँ प्रश्न है कि ये दश अवयव किनके द्वारा माने गये हैं ? भाष्यकार ने उन्हें 'दशावयवानेके नयायिका वाक्ये संचक्षते'138 शब्दों द्वारा "किन्हीं नैयायिकों' की मान्यता बतलाई है। पर मूल प्रश्न असमाधेय ही रहता है।
हमारा अनुमान है कि भाष्यकार को 'एके नैयायिकाः' पद से प्राचीन सांख्यविद्वान युक्तिदीपिकाकार अभिप्रेत हैं, क्योंकि युक्तिदीपिका134 में उक्त दशावयवों का न केवल निर्देश है किन्तु स्वमतरूप में उनका विशद एवं विस्तृत व्याख्यान भी है । युक्तिदीपिकाकार उन अवयवों को बतलाते हुए प्रतिपादन करते हैं135 कि "जिज्ञासा, संशय, प्रयोजन, शक्यप्राप्ति और संशयव्युदास ये पाँच अवयव व्याख्यांग हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपसंहार और निगमन ये पांच परप्रतिपादनांग । तात्पर्य यह है कि अभिधेय का प्रतिपादन दूसरे के लिए प्रतिज्ञादि द्वारा होता है और व्याख्या जिज्ञासादि द्वारा । पुनरुक्ति, वैयर्य आदि दोषों का निरास करते हुए युक्तिदीपिका में कहा में कहा गया है138 कि विज्ञानसब के अनुग्रह के लिए जिज्ञासादि का अभिधान करते हैं। अतः व्युत्पाद्य अनेक तरह के होते हैं-सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न । अतः इन सभी के लिए सन्तों का प्रयास होता है । दूसरे, यदि वादी प्रतिवादी से प्रश्न करे कि क्या जानना चाहते हो? तो उसके लिए जिज्ञासादि अवयवों का वचन आवश्यक है। किन्तु प्रश्न न करे तो उसके लिए वे नहीं भी कहे जाएं । अन्त में निष्कर्ष निकालते हुए युक्तिदीपिकाकार 137 कहते हैं कि इसी से हमने जो वीतानमान के दशावयव कहे वे सर्वथा उचित हैं। आचार्य 188 (ईश्वरकृष्ण) उनके प्रयोग को न्यायसंगत मानते हैं । इससे अवगत होता है कि दशावयव की मान्यता युक्तिदीपिकाकार की रही है । यह भी सम्भव है कि ईश्वरकृष्ण या उनसे पूर्व किसी सांख्य विद्वान् ने दशावयवों को माना हो और युक्तिदीपिकाकार ने उसका समर्थन किया हो।
जैन विद्वान् भद्रबाहु139 ने भी दशावयवों का उल्लेख किया है । किन्तु उनके वे दशावयव उपर्युक्त दशावयवों से कुछ भिन्न हैं।
प्रशस्तपाद40 ने पांच अवयव माने हैं। पर उनके अवयव-नामों और न्यायसूत्रकार के अवयवनामों में कुछ अन्तर है । प्रतिज्ञा के स्थान में तो प्रतिज्ञा नाम ही है । किन्तु हेतु के लिए अपदेश, दृष्टान्त के लिए निदर्शन, उपनय के | स्थान में अनुसन्धान और निगमन की जगह प्रत्याम्नाय नाम दिये हैं । यहाँ प्रशस्तपाद की एक विशेषता उल्लेखनीय है। न्यायसूत्रकार ने जहाँ प्रतिज्ञा का लक्षण 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा' यह किया है वहां प्रशस्तपादने 'अनुमेयो शोऽविरोधी
२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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