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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
प्रतिबन्धकता प्रकट होती है। उन्होंने167 उन साधनगत दोषों को, जिन्हें हेत्वाभास के नाम से उल्लिखित किया गया है, पाँच बतलाया है। वे हैं-१. सव्यभिचार, २. विरुद्ध, ३. प्रकरणसम, ४. साध्यसम और ५. कालातीत । हेत्वाभासों की पांच संख्या सम्भवतः हेतु के पाँच रूपों के अभाव पर आधारित जान पड़ती है । यद्यपि हेतु के पाँच रूपों का निर्देश न्यायसूत्र में उपलब्ध नहीं है । पर उसके व्याख्याकार उद्योतकर प्रभृति ने उनका उल्लेख किया है । उद्योन कर168 ने हेतु का प्रयोजक समस्त रूप सम्पत्ति को और हेत्वाभास का प्रयोजक असमतरूपसम्मति को बला कर उन रूपों का संकेत किया है । वाचस्पनि169 ने उनकी स्पष्ट परिगणना भी कर दी है। वे नाच रूप -धर्म:, साक्षसत्व, विपक्षासत्व, अबाधिनविषयव और अस-पतिपक्षत । इनके अभाव से हेमामा पाँव ही सम्भव हैं । जयन्त भट्ट170 ने तो स्पष्ट लिखा है कि एक-एक रूप के अभाव में पांच हेत्वामास हो। हैं। न्यायसूत्र कार ने एक-एक पृथक् सूत्र द्वारा उनका निरूपण किया है। वात्स्यायन171 ने हेत्वाभास का स्वरूप देते हए लिखा है कि नो हे नक्षण (पवरूप) रहित है परन्तु कतिपय रूपों के रहने के कारण हेतु-सादृश्य से हेतु की तरह आभासित होते हैं उन्हें अहेतु अर्थात् हेत्वाभास कहा गया है। सर्वदेव72 ने भी हेत्वाभास का यही लक्षण दिया है।
कणाद 73 ने अप्रसिद्ध, विरुद्ध और सन्दिग्ध ये तीन हेत्वाभास प्रतिपादित किये हैं। उनके भाष्यकार प्रशस्त पाद174 ने उनका समर्थन किया है । विशेष यह कि उन्होंने175 काश्यप की दो कारिकाएं उद्धत करके पहली द्वारा हेतु को त्रिरूप और दूसरी द्वारा उन तीन रूपों के अभाव से निष्पन्न होने वाले उक्त विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्ध तीन हेत्वाभासों को बताया है। प्रशस्तपाद 76 का एक वैशिष्ट्य और उल्लेख्य है। उन्होंने निदर्शन के निरूपण-सन्दर्भ में बारह निदर्शनाभासों का भी प्रतिपादन किया है, जबकि न्यायसूत्र और न्यायभाष्य में उनका कोई निर्देश प्राप्त नहीं है। पांच प्रतिज्ञाभासों (प्रक्षाभासों) का भी कथन प्रशस्तपाद17 ने किया है, जो बिलकुल नया है। सम्भव है, न्यायसूत्र में हेत्वाभासों के अन्तर्गत जिस कालातीत (बाधितविषय-कालात्ययापदिष्ट) का निर्देश है उसके द्वारा इन प्रतिज्ञाभासों का संग्रह न्यायसूत्रकार को अभीष्ट हो । सर्वदेव178 ने छह हेत्वाभास बताये हैं।
उपायहृदय179 में आठ हेत्वाभासों का निरूपण है। इनमें चार (कालातीत, प्रकरणसम, सव्यभिचार और विरुद्ध) हेत्वाभास न्यायसूत्र जैसे ही हैं तथा शेष चार (वाक्छल, सामान्यछल, संशयसम और वर्ण्यसम) नये हैं। इनके अतिरिक्त इसमें अन्य दोषों का प्रतिपादन नहीं है। पर न्यायप्रवेश180 में पक्षाभास, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास इन तीन प्रकार के अनुमान-दोषों का कथन है । पक्षाभास के नौ31, हेत्वाभास के तीन182, और दृष्टान्ताभास के दश183 भेदों का सोदाहरण निरूपण है। विशेष यह कि अनेकान्तिक हेत्वाभास के छह भेदों में एक विरुद्धाव्यभिचारी184 का भी कथन उपलब्ध होता है, जो ताकिकों द्वारा अधिक चचित एवं समालोचित हुआ है। न्यायप्रवेशकार186 ने दश दृष्टान्ताभासों के अन्तर्गत उभयासिद्ध दृष्टान्ताभास को द्विविध वर्णित किया है और जिससे प्रशस्तपाद जैसी ही उनके दृष्टान्ताभासों की संख्या द्वादश हो जाती है। पर प्रशस्तपादोक्त द्विविध आश्रयासिद्ध उन्हें अभीष्ट नहीं है।
कुमारिल186 और उनके व्याख्याकार पार्थसारथि187 ने मीमांसक दृष्टि से छह प्रतिज्ञाभासों, तीन हेत्वाभासों और दृष्टान्तदोषों का प्रतिपादन किया है। प्रतिज्ञाभासों में प्रत्यक्षविरोध, अनुमानविरोध और शब्दविरोध ये तीन प्रायः प्रशस्तपाद तथा न्यायप्रवेशकार की तरह ही हैं । हाँ, शब्दविरोध के प्रतिज्ञातविरोध, लोकप्रसिद्धिविरोध और पूर्वसंजल्पविरोध ये तीन भेद किये हैं। तथा अर्थापत्तिविरोध, उपमानविरोध और अभावविरोध ये तीन भेद सर्वथा नये हैं, जो उनके मतानुरूप हैं। विशेष188 यह कि इन विरोधों को धर्म, धर्मी और उभय के सामान्य तथा विशेष स्वरूपगत बतलाया गया है । त्रिविध हेत्वाभासों के अवान्तर भेदों का भी पदर्शन किया है और न्यायप्रवेश की भांति कुमारिल189 ने भी माना है।
सांख्यदर्शन में युक्तिदीपिका आदि में तो अनुमानदोषों का प्रतिपादन नहीं मिलता। किन्तु माठर100 ने असिद्धादि चौदह हेत्वाभासों तथा साध्यविकलादि दश साधर्म्य-वैधर्म्य निदर्शनाभासों का निरूपण किया है। निदर्श
६४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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