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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) -
हरिभद्र के शास्त्रसमुच्चय, अनेकान्त जयपताका आदि ग्रन्थों में अनुमान चर्चा निहित है । विद्यानन्द ने अष्टसहस्री तत्त्वार्थश्लोकवालिक प्रमाण-परीक्षा, पत्रपरीक्षा जैसे दर्शन एवं न्याय प्रबन्धों को रचकर जैन न्याय वाङ् मय को समृद्ध किया है । माणिक्यनन्दि का परीक्षामुख, प्रभाचन्द्र का प्रमेयकमलमार्तण्ड-न्यायकुमुदचन्द्र-युगल, अभयदेव की सन्मतितर्कटीका देवसूरि का प्रमाणनयतस्वालोकालंकार, अनन्तवीर्य की सिद्धिविनिश्चय टीका, वादिराज का न्यायविनिश्चयविवरण, लघुअनन्तवीर्य की प्रमेयरत्नमाला, हेमचन्द्र की प्रमाण मीमांसा, धर्मभूषण की न्यायदीपिका और यशोविजय की जैन तर्कभाषा जैन अनुमान के विवेचक प्रमाण ग्रन्थ हैं।
संक्षिप्त अनुमान - विवेचन
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अनुमान का स्वरूप से होती है । अनु का अर्थ है पश्चात् अर्थात् एक ज्ञान के बाद होने वाला अभिमत है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही एक
व्याकरण के अनुसार 'अनुमान' शब्द की निष्पत्ति अनु + मा + ल्युट् और मान का अर्थ है ज्ञान । अतः अनुमान का शाब्दिक अर्थ है पश्चावर्ती ज्ञान उत्तरवर्ती ज्ञान अनुमान है। यहाँ 'एक ज्ञान' से क्या तात्पर्य है ? मनीषियों का ज्ञान है जिसक अनन्तर अनुमान की उत्पत्ति या प्रवृत्ति पायी जाती है। गौतम ने इसी कारण अनुमान का 'तत्पूर्वकम् 34 - प्रत्यक्षपूर्वकम्' कहा है। वात्स्यायन का भी अभिमत है कि प्रत्यक्ष के बिना कोई अनुमान सम्भव नहीं । अतः अनुमान के स्वरूप- लाभ में प्रत्यक्ष का सहकार पूर्वकारण के रूप में अपेक्षित होता है। अतएव तर्कशास्त्री ज्ञात प्रत्यक्षप्रतिपन्न अर्थ से अज्ञात परोक्ष वस्तु की जानकारी अनुमान द्वारा करते हैं।
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कभी-कभी अनुमान का आधार प्रत्यक्ष न रहने पर आगम भी होता है। उदाहरणार्थ, शास्त्रों द्वारा आत्मा की सत्ता का ज्ञान होने पर हम यह अनुमान करते हैं कि 'आत्मा शाश्वत है, क्योंकि वह सत् है ।' इसी कारण वात्स्या यन 37 ने 'प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानम्' अनुमान को प्रत्यक्ष या आगम पर आश्रित कहा है। अनुमान का पर्यायशब्द अन्वीक्षा भी है, जिसका शब्दिक अर्थ एक वस्तुज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् दूसरी वस्तु का शान प्राप्त करना है। यथा-धूम का ज्ञान प्राप्त करने के बाद अग्नि का ज्ञान करना ।
उपयुक्त उदाहरण में धूम द्वारा वह्नि का ज्ञान इसी कारण होता है कि धूम वह्नि का साधन है धूम को अग्नि का साधन या हेतु मानने का भी कारण यह है कि धूम का अग्नि के साथ नियत साहचर्य सम्बन्ध अविनाभाव है। जहाँ धूम रहता है वहाँ अग्नि अवश्य रहती है। इसका कोई अपवाद नहीं पाया जाता है । तात्पर्य यह कि एक अविनाभावी वस्तु के ज्ञान द्वारा तत्सम्बद्ध इतर वस्तु का निश्चय करना अनुमान है । 40
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अनुमान के अंग
अनुमान के उपर्युक्त स्वरूप का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि धूम से अग्नि का ज्ञान करने के लिए दो तत्व आवश्यक हैं - १. पर्वत में धूम का रहना और २. धूम का अग्नि के साथ नियत साहचर्य सम्बन्ध होना प्रथम को पक्षधर्मता और द्वितीय को व्याप्ति कहा गया है। यही दो अनुमान के आधार अथवा अग हैं। जिस वस्तु से जहाँ सिद्धि करना है उसका वहाँ अनिवार्य रूप से पाया जाना पक्षधर्मता है जैसे धूम से पर्वत मे अग्नि की सिद्धि करना है तो धूम का पर्वत में अनिवार्य रूप से पाया जाना आवश्यक है । अर्थात् व्याप्य का पक्ष में रहना पक्षधर्मता है । 42 तथा साधनरूप वस्तु का साध्यरूप वस्तु के साथ ही सर्वदा पाया जाना व्याप्ति है । जैसे धूम अग्नि के होने पर ही पाया जाता है - इसके अभाव में नहीं, अतः धूम की वह्नि के साथ व्याप्ति है। पक्षधर्ममता और व्याप्ति दोनों अनुमान के आधार हैं । पक्षधर्मता का ज्ञान हुए बिना अनुमान का उद्भव सम्भव नहीं है । उदाहरणार्थ - पर्वत में धूम की वृत्तिता का ज्ञान न होने पर वहाँ उससे अग्नि का अनुमान नहीं किया जा सकता । अतः पक्षधर्मता का ज्ञान आवश्यक है । इसी प्रकार व्याप्ति का ज्ञान भी अनुमान के लिए परमावश्यक है । यतः पर्वत में धर्मदर्शन के अनन्तर भी तब तक अनुमान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, जब तक धूम का अग्नि के साथ अनिवार्य सम्बन्ध स्थापित न हो जाए ।
जैन-न्याय में अनुमान विमर्श: डॉ० दरबारीलाल कोठिया | ५७
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