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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जैसे आधुनिक दार्शनिकों को विदित है । किन्तु फिर भी जैनेतर तर्कशास्त्रियों ने प्राकृत भाषा में तर्कशास्त्र के ग्रन्थ नहीं लिखे। कदाचित् उन्होंने तर्क को बोलचाल की भाषा से सम्बन्धित नहीं किया था। जैनियों ने तर्क को बोल-चाल की भाषा से सम्बन्धित करके सिद्ध किया है कि तर्कशास्त्र एक जीवन्त शास्त्र है, और उसका महत्त्व दैनिक जीवन, भाषण और चिन्तन के लिये है । आधुनिक युग में जब प्राकृत बोलचाल की भाषा नहीं रह गयी तब जैन विद्वानों ने गुजराती और हिन्दी में तर्कशास्त्र लिखकर बोलचाल की भाषा से इसको पुनः जोड़ दिया है । पंडित सुखलाल संघवी ने यह महान कार्य किया है। पाँचवे, अभी तक जिन मूल्यों का हमने विवेचन किया है वे उतने महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना तर्कशास्त्र का सांव्यवहारिक महत्त्व है । जैनियों ने बकवाद के लिये अथवा विवाद के लिये तर्कशास्त्र का सजन नहीं किया। उनका तर्कशास्त्र प्रत्यक्षवादी तर्कशास्त्र तथा प्रत्ययवादी तर्कशास्त्र नहीं है। जिस प्रकार न्यायदर्शन ने प्रत्यक्षवादी तर्कशास्त्र और बौद्धों ने प्रत्ययवादी (Idealistic) तर्कशास्त्र को जन्म दिया, उसी प्रकार जैनियों ने सांव्यवहारिक तर्कशास्त्र (Pragmatic Logic) को जन्म दिया। जैनतर्कशास्त्र वैसे ही सांव्यवहारिक है जैसे जॉन डिवी और क्वाइन का सांव्यवहारिक तर्कशास्त्र । और यह वैसे ही नैयायिकों के तर्कशास्त्र से भिन्न है जैसे आज क्वाइन का तर्कशास्त्र कानप के तर्कशास्त्र से भिन्न है । जैनियों का सांव्यवहारिक दृष्टिकोण उनके स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में भली-भाँति सुरक्षित है । पुनः परन्तु इसकी सर्वांग सुन्दर व्याख्या हेमचन्द्र सूरि के प्रमाण मीमांसा में मिलती है। हेमचन्द्र सूरि ने सम्यग् अर्थ निर्णय को प्रमाण कहा -सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् । फिर अर्थ की व्याख्या करते हुये उन्होंने कहा कि जो हेय, उपादेय या उपेक्षणीय हो वह अर्थ है । अर्थ और प्रमाण की ये परिभाषायें जैन तर्कशास्त्र के सांव्यवहारिक स्वरूप को उजागर करती हैं, पुनश्च जैनियों का नयवाद जो प्रत्येक कथन के व्यावहारिक मूल्य का अनुसंधान करता है उनके संव्यवहार का सबसे बड़ा प्रामाण्य है। छठे, जैनियों ने एक अभितर्कशास्त्र (Metalogic) को जन्म दिया जो उनका समस्त भारतीय तर्कशास्त्र में सबसे बड़ा योगदान है। उन्होंने तर्कशास्त्र का मूल बोलचाल के प्रकथनों में ढूंढ़ा, और नयवाद का सिद्धान्त खोजा। किसी एक दृष्टिकोण से कहा गया प्राकथन नय है।"प्रामाण्य के दृष्टिकोप वह सत्य (प्रमाणनय) असत्य (दुर्नय) और सत्यासत्य निरपेक्ष या अनिश्चित (नय) हो सकता है। यहाँ जैनियों ने वास्तव में सत्यता के तीन मूल्यों की खोज की है, जिनकी जानकारी पश्चिम में केवल २०वीं सदी में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हो पायी है। सत्यता के इन तीन मूल्यों की तुलना लुकासेविग्ज के तीन सत्यता मूल्यों से की जा सकती है । प्रमाण नय स्याद्वाद है, दुर्नय एकांगी नय या असत्य नय है और नय अनिश्चित है। इस प्रकार सत्य, अनिश्चित और असत्य इन तीन सत्यता-मुल्यों को खोज जैनियों की बहुत बडी खोज है। उन्होंने तीन मूल्यों वाले तर्कशास्त्र का अधिक विकास नहीं किया और द्विमूल्यीय तर्कशास्त्र के बल पर ही अनुमान किया। परन्तु आज उनके नयवाद के आधार पर त्रिमुल्यीय तर्कशास्त्र की संरचना की जा सकती है। ___ अभितर्कशास्त्र के रूप में जैनियों ने सामान्य भाषा का ताकिक अनुशीलन किया। उन्होंने सप्तभंगी नय का सिद्धान्त बनाया, जिससे किसी विषय से सम्बन्धित सात प्रकार के कथन हो सकते यद्यपि इन सात प्रकार के कथनों का उपयोग उन्होंने अपने न्याय-वाक्य में नहीं किया तथापि उन्होंने इनके द्वारा अर्थ के विभिन्न प्रकारों को सुझाया है और किसी सन्दर्भ-विशेष में उससे सम्बन्धित अर्थ-ग्रहण पर बल दिया है। ३८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jaiheti
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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