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rai साध्वारत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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मीमांसा दोनों दृष्टिकोणों का समन्वय करते हुए अकलंक ने सिद्धिविनिश्चय और न्यायविनिश्चय लिखकर सूचित किया कि वास्तव में तर्कशास्त्र में सिद्धि-प्रक्रिया और विनिश्चयप्रक्रिया का महत्व अधिक है। फिर इनकी परीक्षा का प्रश्न उठता है और तर्कशास्त्र सम्बन्धी सभी विवेचनों की परीक्षा का महत्व बढ़ता है जिसकी अभिव्यक्ति माणिक्यनन्दि के परीक्षामुखशास्त्र में होती है। परीक्षा का आधार प्रमाण होता है इस कारण तर्कशास्त्र की अग्रिम अवस्था प्रमाण मीमांसा हो जाती है जिसका विकसित रूप हमें हेमचन्द्र की प्रमाण मीमांसा में मिलता है ।15 आगे चलकर प्रमाण से भी अधिक महत्त्व तर्क या तर्कणा का हो जाता है जिसकी अभिव्यक्ति यशोविजय की तकभाषा में होती है। इस प्रकार नियुक्तिशास्त्र से लेकर तर्कशास्त्र के विकास की सभी अवस्थाओं का वर्णन जैन दर्शन में सुरक्षित है। जैनप्रमाणवाद का यही ऐतिहासिक योगदान है।
दूसरे, जैनतर्कशास्त्र का तुलनात्मक और आलोचनात्मक महत्त्व है। यह बड़े महत्त्व की बात है कि जैनतर्कशास्त्रियों ने सांख्य, न्याय, मीमांसा, चार्वाक मतों के लक्षणों और सिद्धान्तों का तुलनात्मक अध्ययन किया और उनकी आलोचना की । उदाहरण के लिये, हेमचन्द्र सूरि ने प्रमाण की उन परिभाषाओं का खण्डन किया जिन्हें न्याय, मीमांसा और बौद्ध दर्शन के विद्वानों ने दिया था। अनेक जैन तर्कशास्त्रियों ने बौद्ध न्याय-ग्रन्थों पर और चार्वाक न्याय-ग्रन्थों पर टीका-टिप्पणी की। किन्तु बड़े आश्चर्य की कि यद्यपि न्याय-दर्शन के तर्कशास्त्री बौद्ध तर्कशास्त्रियों के द्वारा किये गये अपने सिद्धान्तों के खण्डन से परिचित हैं और उनको उत्तर भी देते हैं, तथापि वे जैनियों के द्वारा किये गये तुलनात्मक और आलोचनात्मक अनुशीलन से सर्वथा अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। यही हाल बौद्ध, मीमांसा और सांख्य के परवर्ती विद्वानों का भी है। अतः हम कह सकते हैं कि जैनियों ने भारतीय तर्कशास्त्र-सम्बन्धी विभिन्न लक्षणों और सिद्धान्तों का जो तुलनात्मक और आलोचनात्मक परिशीलन किया वह आधुनिक भारतीय तर्कशास्त्र को विकसित करने में सहायक ही नहीं अपितु अनिवार्य भी है ।
तीसरे, तर्कशास्त्र का अध्ययन बुद्धि को विमल बनाता है, उसे कुशाग्र करता है। इस तथ्य को सभी प्राचीन दार्शनिकों ने धर्म के सन्दर्भ में कहा है। किन्तु जिस प्रकार सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्क प्रकरण में तर्कशास्त्र को महत्व दिया है वैसा प्राचीन साहित्य में बहुत कम देखने को मिलता है। उनके मत से तर्कशास्त्र प्रभावक शास्त्र है और उसके ज्ञाता को अकल्पित सेवन के लिये प्रायश्चित्त नहीं करना पड़ता है ।
इस प्रकार जैन तर्कशास्त्रियों ने तर्कशास्त्र को उच्च पद पर प्रतिष्ठित किया है। वह तर्कशास्त्र की गरिमा का अद्वितीय उदाहरण है।
चौथे, जैन तर्कशास्त्र का भाषा-वैज्ञानिक महत्त्व भी कम नहीं है। जैनों ने प्राकृत, संस्कृत, गुजराती और हिन्दी में अच्छा तर्कशास्त्र साहित्य निर्मित किया है । इन सभी भाषाओं में प्राकृत भाषा का महत्त्व तर्कशास्त्र के इतिहास में क्या है ? इस प्रश्न को हल करने का एक मात्र साधन जैनतर्कशास्त्र है क्योंकि जैनियों ने प्राकृत भाषा में तर्कशास्त्र लिखे और जैनेतर तर्कशास्त्रियों ने प्राकृत भाषा में तर्कशास्त्र नहीं लिखे । बड़े आश्चर्य की बात है कि यद्यपि बौद्धों के धर्मग्रन्थ पालि भाषा में हैं तथापि इस भाषा में उनका एक भी तर्कशास्त्र ग्रन्थ नहीं है । प्राकृत भाषा संस्कृत और हिन्दी के बीच की कड़ी है । इसी प्रकार प्राकृत भाषा का तर्कशास्त्र भी संस्कृत भाषा के तर्कशास्त्र और हिन्दी भाषा के तर्कशास्त्र के बीच की कड़ी है। भाषा और तर्क का सम्बन्ध बहुत गाढ़ा है, यह तथ्य प्राचीन भारतीय दार्शनिकों को वैसे ही विदित था
जैन प्रमाणवाद का पुनर्मूल्यांकन : डा० संगमलाल पाण्डेय | ३७
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