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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
अपने तर्कशास्त्र का विकास किया। परन्तु यदि हम उनके तर्कशास्त्र की तुलना न्याय-दर्शन के तर्कशास्त्र से करें तो पता चलेगा कि वास्तव में इन तीनों के तकशास्त्र में कोई मौलिक अन्तर नहीं है और ये तीनों एक ही प्रकार के तर्कशास्त्र की स्थापना करते हैं।
ग में तर्कशास्त्र ज्ञानमीमांसा और तत्त्वमीमांसा से स्वतन्त्र हो गया है। इसलिये आज यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई है कि तर्कशास्त्र किसी तत्त्वमीमांसा या ज्ञानमीमांसा से निकला हुआ शास्त्र नहीं है। उदाहरण के लिये, भारतीय न्याय-वाक्य जैन, बौद्ध, सांख्य, नैयायिक, मीमांसक, और वेदान्ती सभी के दर्शनों में मुलतः एक ही है । उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा तर्कशास्त्र के मुख्य विषय हैं । न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के इस मत को सभी मानते हैं । हेतु तर्कतः सत्य या आभासित होता है, इसको भी वे सभी मानते हैं। इस प्रकार देखने से स्पष्ट है कि वास्तव में विभिन्न दर्शनों के होते हए भी भारत में एक ही प्रकार का तर्कशास्त्र विकसित हआ। उस तकशास्त्र को हिन्दू, बौद्ध और जैन के वर्गों में बाँटना प्राचीन विद्वानों का वर्गीकरण-दोष था, जिसके चक्कर में शेरबात्स्की, सतीशचन्द्र विद्याभूषण, एच० एन० रैन्डिल, सुखलाल संघवी आदि आधुनिक विद्वान भी पड़ गये हैं। भारत में जो तर्कशास्त्र विकसित हुआ है वह द्विमूल्यीय तर्कशास्त्र है। वह हिन्दू, जैन, बौद्ध न होकर शुद्ध भारतीय है। पुनश्च सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने जैनतर्कशास्त्र के बारे में एक और भ्रान्त धारण। फैला दी है। वह यह है कि जैनतर्कशास्त्र मध्ययुगीन भारतीय तर्कशास्त्र है किन्तु वास्तव में प्राचीनकाल से लेकर आज तक जैन दार्शनिक तर्कशास्त्र का विकास करते आये हैं। महावीर स्वामी (५६६-५२७ ई० पू०) भद्रबाहु (प्रथम), उमास्वाति (प्रथम शताब्दी ईसवी), भद्रबाहु द्वितीय (३७५ ई०), सिद्धसेन दिवाकर (४८० ई०), जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण समन्तभद्र (६००ई०), अकलंक (७५० ई०), माणिक्यनन्दि (८०० ई०), मल्लवादी (८२७ ई०), हेमचन्द्रसूरि (११०० ई०), हरिभद्र (११२० ई०), मल्लिसेन (१२६२ ई०), यशोविजय (१७वीं शताब्दी), सुखलाल संघवी (२०वीं शताब्दी) आदि जैनियों ने तर्कशास्त्र का विकास किया है और इनका काल प्राचीनकाल से लेकर आज तक है। वास्तव में समस्त जैनतर्कशास्त्र प्राचीन न्याय तर्कशास्त्र की परम्परा में है । उसे मध्ययुगीन या आधुनिक नहीं कहा जा सकता है।
___ अब प्रश्न उठता है कि तर्कशास्त्र में जैनियों का मुख्य योगदान क्या है जिसका महत्त्व आज भी है। हम नहीं मानते कि जैनतर्कशास्त्र का महत्व केवल जैनधर्म के लिये है। हमारे विचार से जैनतर्कशास्त्र का महत्व किसी धर्म या सम्प्रदाय के लिये नहीं, अपितु तर्कशास्त्र के लिये ही है। तर्कश जो महत्व मानव ज्ञान-विज्ञान में है वही महत्व प्राचीन काल में सामान्यतः जैनतर्कशास्त्र का था। यही कारण है कि परम्परोपजीवी जैनियों में वह आज तक जीवित है। किन्तु उनके लिये जैनतर्कशास्त्र का जो महत्व है वह हम लोगों के लिये जो जैनी नहीं है, नहीं है। अतः देखना है कि हमारे लिये जैनतर्कशास्त्र का क्या महत्व आज है ?
इस प्रसंग में सबसे पहले कहा जा सकता है कि जैनतर्कशास्त्र का ऐतिहासिक मूल्य है। प्राचीन काल से लेकर आज तक भारतीय तर्कशास्त्र जिन-जिन स्थितियों से गुजरा है उनका सजीव वर्णन जैन तर्कशास्त्र में सुरक्षित है । तर्कशास्त्र का आरम्भ धर्म से सम्बन्धित कुछ पदों से निर्वचन से हुआ। भद्रवाह की नियुक्तियाँ ऐसा ही निर्वचन करती है ।10 इन निर्वचनों को लेकर तात्त्विक तर्कशास्त्र का विकास हुआ, जिसका वर्णन सिद्धसेन दिवाकर का सन्मति तर्कप्रकरण करता है। इसी से न्याय पैदा होता है जो बुद्धि को सत की ओर ले जाने के कारण न्याय कहलाता है। सिद्धसेन दिवाकर का न्यायावतार इस अवस्था को सूचित करता है। फिर इसके बाद विवेचन, विश्लेषण और विवाद प्रकट होते हैं, जिनको लेकर मीमासां उत्पन्न होती है । समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा इस अवस्था को व्यक्त करती है। न्याय और
३६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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