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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
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इस प्रकार आधुनिक युग में हम प्राचीन जैनतर्कशास्त्र का उपयोग तर्कशास्त्र के लिये कर सकते हैं । उस के अधार पर हम कम से कम तीन दिशाओं में भारतीय तर्कशास्त्र का विकास कर सकते हैं।
पहला, हम जैन तर्कशास्त्र की परम्परा के अनुकूल एक अभितर्कशास्त्र विकसित कर सकते हैं जो आधुनिक पाश्चात्य अभितर्कशास्त्र से भिन्न है।
__दूसरा, हम एक त्रिमूल्यीय तर्कशास्त्र विकसित कर सकते हैं, या जैन त्रिमूत्यीय तर्कशास्त्र को लुकासेविग्ज के त्रिमूल्यीय तर्कशास्त्र से जोड़ सकते हैं।
तीसरे, हम सामान्य लोकभाषा में तर्कशास्त्र-परम्परा को विकसित कर सकते हैं जिसका सूत्रपात जैनियों ने अपने नयवाद में किया है । यही जैनतर्कशास्त्र का आधुनिक महत्व है।
इस प्रकार अब स्पष्ट है कि जैनतर्कशास्त्र का प्रमाणवाद किसी म्यूजियम की वस्तु नहीं है। उसका आज भी महत्त्व है। जिस प्रकार जैन विद्वान् अनेकान्तवाद के आधार पर आज-कल सभी धर्मों का समन्वय कर रहे हैं उसी प्रकार उन्हें आज-कल विविध तर्कशास्त्रियों और अभितर्कशास्त्रियों का भी समन्वय करना चाहिये या कम से कम उनका तुलनात्मक और आलोचनात्मक अनुशीलन करना चाहिये। अगर इतना वे इस युग में करते हैं तब वे तर्कशास्त्र के क्षेत्र में अपनी परम्परा का पूर्ण निर्वाह करते हैं । यदि वे कोई नया तर्कशास्त्र या अभितर्कशास्त्र नहीं बनाते और आधुनिक सभी तर्कशास्त्रों और अभितर्कशास्त्रों के समन्वयात्मक अनुशीलन तक ही अपने को सीमित रखते हैं तो भी उनका कार्य सर्वथा मौलिक, प्रशंसनीय और युगीन होगा। हमारे मत से जो भी लोग यह कार्य आज कर रहे हैं वे सभी जैन परम्परा का ही पालन कर रहे हैं । आज के विभिन्न तर्कशास्त्रों में इतना अन्तर होता जा रहा है, कि एक दूसरे की भाषा को भी नहीं समझ सकता है। इस तार्किक परिस्थिति का सामना करना और सभी तर्कशास्त्रों को एक दूसरे के सन्निकट लाना और एक को दूसरे के लिये बोधगम्य बनाना उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना किसी मौलिक तर्कशास्त्र का सृजन करना। हम मानते हैं कि ज्ञान एक और अखण्ड है । इसलिये यह समन्वयात्मक कार्य सम्भव है । इस प्रकार जैन प्रमाणवाद की आधुनिक दिशा अत्यन्त सुस्पष्ट हो जाती है।
1. प्रमाण स्वपराभासि-न्यायावतार 1 2. अपूर्वार्थ विज्ञानम्-परीक्षामुखशास्त्र 1/1 3. सम्यगर्थनिर्धारणं प्रमाण:-प्रमाणत्रयी माला । 4. सम्यगर्थनिर्णय: प्रमाणम्-प्रमाणमीमांसा । 5. प्रमाकरणम् प्रमाणम्-तर्कभाषा पृष्ठ 13 (विश्वेश्वर कृत व्याख्या) 6. प्रत्यक्षस्यापि प्रमाणान्तर पूर्वक्त्वोपलव्धेः । (प्रमाणमीमांसा 1/10 वृत्ति) 7. प्रमाणमीमांसा-1/2 की वृत्ति।
8. देखिये उनका मूल-इण्डियन लाजिक । 9-16. सन्मतितर्थ प्रकरण की प्रस्तावना-(सखलाल संघवी पृष्ठ 4)। 17. एकदेश विशिष्टोर्थो नयस्य विषयोमतः । (न्यायावतार 29)। 18. स्याद्वाद मंजरी, मल्लिसेन, श्लोक-28
जैन प्रमाणवाद का पुनर्मूल्यांकन : डा० संगमलाल पाण्डेय | ३६