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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
जैनदर्शन में आत्मविचार जैन दर्शन जगत् को मूलतः 'जीव' और 'अजीव' दो तत्त्वों में विभाजित करता है। 'आत्मा'| 'चेतन' को 'जीव' कहा गया है। 'जीव' के/'बद्ध' और 'मुक्त' दो सामान्य भेद कहे गये हैं। जन्म-मृत्यु के चक्र में संसरण करता हुआ और इसी में अनुरक्त 'जीव' विविध कर्मों को करता है और 'बन्ध' को प्राप्त होता है । कर्मबन्धन से युक्त जीव को 'बद्ध'/'संसारो' कहा जाता है। जिन्होंने बन्ध को नष्ट कर दिया, वे 'मुक्त' जीव हैं।
___ जीव-स्वरूप-त्रैकालिक जीवन गुण से युक्त होने से 'जीव' संज्ञा सार्थक कही गई है। 'जीवन' का आधार दशविध 'प्राण' बतलाये गये हैं। यह व्यवहार दृष्टि है। निश्चय दृष्टि से, जिसमें 'चेतना' पायी जाये, वह 'जीव' है । जैनदर्शन में चेतना को 'भावप्राण' भी कहा गया है।
___ जीव का लक्षण-जैनदर्शन में जीव का लक्षण 'उपयोग' कहा गया है। उपयोग, चेतना का अनुविधायि परिणाम होता है । इसे 'ज्ञान' और 'दर्शन' नाम से दो भेदों वाला बतलाया गया है। इन दोनों के धारक को 'जीव' कहा जाता है।
जीव के गुण-स्वरूप-लक्षण के अनुसार जीव 'उपयोगमय' है। इसमें रहने वाली चेतना/उपयोग में संकोच/विस्तार की सामर्थ्य होती है। इसलिये वह चींटी और हाथी जैसे शरीरों में, उनकी देह के प्रमाण में, रहता है । इसलिये उसे 'स्वदेहप्रमाण' माना गया। अनादि कर्मबन्ध के कारण, वह नानाविध कर्मों को करता है, और उनके फलों को भी भोगता है। अतः वह 'कर्ता' और 'भोक्ता' भी है। अरूपी होने के कारण उसे 'अमूर्त' माना गया । और वह, स्वभावतः 'ऊर्ध्वगगनशील' है। संसारावस्था से 'मुक्त' हो जाने पर उसे 'सिद्ध' कहा जाता है ।
जीव का द्रव्यत्व-'जीव' में अचेतन पदार्थों की तरह, 'प्रदेश' और 'अवयत्र' भी माने गये हैं। उसे, इसी कारण 'अस्तिकाय' कहा गया। उसमें प्रतिक्षण परिममन क्रिया होती रहती है। वह अपने मूलरूप/गुणों को नहीं छोड़ता। ये उत्साद, व्यय और ध्रौव्य, उसमें सदा पाये जाते हैं। इन कारणों से इसे भी एक द्रव्य माना गया।
आत्मा का लक्षण-जैन वाङमय में 'अतति/गच्छति इति आत्मा' रूप में 'आत्मा' की परिभाषा दी गई है। ‘गमन' अर्थवाली धातुएँ ज्ञानार्थक भी होती हैं । इसलिए, जो 'ज्ञान' आदि गुणों में आ-समन्तात् रहता है, अथवा, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप त्रिक के साथ, जो समग्रतः रहता है, वह 'आत्मा' है ।
आत्मा के भेद-द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से आत्मा 'एक' है। किन्तु, पर्यायाथिक नय की दृष्टि से परिणामात्मक होने के कारण, इसके तीन प्रकार माने गये हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । संसारी आत्मा जीव, शरीर आदि पर-द्रव्यों में 'आत्मबुद्धि' रखता है। अतः वह 'बहिरात्मा' है60 । जब, उसकी यह पर-बुद्धि दूर हो जाती है, यानी उसके 'मिथ्यात्व' के मिट जाने पर, उसमें 'सम्यक्त्व' आ जा है, तब वह 'अन्तरात्मा' बन जाता है । अन्तरात्मा के भी 'उत्तम' 'मध्यम' और 'जघन्य' तीन प्रकार हैं।
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53. तत्त्वार्थराजवार्तिक-2/10/1 56. द्रव्यसंग्रह-23, 24 59. मोक्षप्राभृत-4
54. वही -1/4/7
55. तत्त्वार्थराजवातिक-2/8/1 57. पञ्चास्तिकाय--9/12/13 58. बहव्व्य सग्रह-57 60. अध्यात्म कमलमार्तण्ड-3/12 61. वही-3/12
१४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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