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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
'परमात्मा', 'सकल' और 'विकल' भेद से, दो प्रकार का माना गया है। सर्वज्ञ/अर्हन्त को 'सकल परमात्मा' और 'सिद्ध' 'परमेष्ठी' को 'विकल परमात्मा' बताया गया है।
बन्ध प्रक्रिया-जैनदार्शनिकों ने मन, वचन और काय में 'स्पन्दन'/क्रिया मानी है। इसे वे 'योग' कहते हैं । राग-द्वेष के निमित्त से, जब-जब भी ये स्पन्दन होते हैं, तब, हर स्पन्दन के द्वारा, एक अचेतन द्रव्य/कर्मपरमाणु, बीजरूप में, जीव में प्रवेश कर जाता है । और, आत्मा के साथ चिपक बंधकर रह जाता है। समय आने पर, यही सुख/दुःख देने में समर्थ हो जाता है। इसी को 'कर्म' और 'कर्मबन्ध' समझना चाहिए । जीव के राग-द्वेष आदि वासनाएँ, तथा कर्मबन्ध की परम्परा बीज-वृक्ष की तरह अनादि हैं। राग-द्वेषपूर्वक होने वाले मन-वाणी-शरीर के रपदनों से नये-नये कर्मों का बन्ध होता है। यहाँ, राग-द्वेष की उत्पत्ति से 'भावास्रव', और इन दोनों से युक्त. परिस्पन्दन के साथ बीजरूप कर्मपुद्गल के प्रवेश को 'द्रव्यास्रव' कहा जाता है। भावास्रव से "भावबन्ध' और 'द्रव्यासव' से 'द्रव्यबन्ध' होता है । इसके ___ अलावा मिश्यात्व' 'अविरति' 'प्रमाद' और 'कषाय' को बध का प्रमुख कारण माना ग
बन्धकारणों से आत्मा के मूलगुण/धर्म प्रभावित होते हैं। जिससे वह 'परभाव' परिणति करता हुआ, संसारावस्था को और सुदृढ़ बनाता रहता है।
मोक्ष-जो कर्म, आत्मा के साथ चिपके बंधे हैं, उनका सर्वथा उच्छेद /विनाश हो जाना 'मोक्ष' है । कर्मबन्ध का विनाश हो जाने पर आत्मा स्वतंत्र हो जाता है। और अपनी शुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
मोक्ष प्रक्रिया-जैनदर्शन, कर्मबन्ध विनाश/मोक्ष की प्रक्रिया को 'संवर' और 'निर्जरा' रूप में, दो चरणों में बाँटता है । प्रथम चरण में, नये-नये कर्मों को बंधने से रोकना, और दूसरे चरण में, पूर्व में बंधे कर्मों का उच्छेद करना, विहित किया गया है।
दशवैकालिक सूत्र, स्थानाङ्ग सूत्र और दशाश्रुतस्कंध में मोक्ष-प्रक्रिया कर्म-विच्छेद का क्रम वर्णित है । इनका सांराश इस तरह है।
जीव, राग-द्वेष और मिथ्यात्व को जीतकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में तत्पर होता है । और, आठ प्रकार की कर्मग्रंथियों को भेदने छेदने का प्रयत्न करता है । इस प्रयास में वह सर्वप्रथम मोहनीय कर्म की अट्ठाइस प्रकृतियों को नष्ट करता है। फिर, पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय, और पाँच प्रकार के अन्तराय कर्मों का युगपत् एक साथ क्षय करता है। इसके बाद, उसमें आवरण रहित, अनन्त और परिपूर्ण केवलज्ञान-दर्शन उत्पन्न होते हैं। इन दोनों का सद्भाव होने तक ज्ञानावरणीय आदि चारों घनघाति कर्मों का विनाश हो चुका होता है। इसी अवस्था में उसे 'सर्वज्ञ'/'अर्हन्त/केवली' जैसे नामों से सम्बोधित किया गया है । इसी अवस्था को वेदान्त की 'जीवन्मुक्त' अवस्था जैसा कह सकते हैं । इसके उपरान्त जब केवली/सर्वज्ञ की आयु का मात्र एक मुहूर्त शेष रह जाता है, तब, वह सबसे पहले अपने मानसिक स्पन्दन को रोकता है, फिर वाणी और शरीर के स्पन्दन को, और श्वासोच्छ्वास को रोककर, शुक्लध्यान की चतुर्थ श्रेणी-शैलेशीकरण में स्थित हो जाता है।
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62. समाधितत्र-5 64. कर्मप्रकृति-प्रस्तावना, 66. तत्त्वार्थसूत्र-सर्वार्थसिद्धि-1/4 68. स्थानाङ्गसूत्र-3/3/190]
63. तत्त्वार्थसूत्र-6/1 65. पञ्चास्तिकाय-147 67. दशवकालिकसूत्र-4/14-25, 69. दशाश्रुतस्कन्ध-5/1/3,5/11,16
भारतीय दर्शनों में आत्म-तत्त्व : डॉ० एम० पी० पटैरिया | १५