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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
'ज्ञान' से अविद्या का नाश हो जाने पर प्रकृति/पुरुष अपने-अपने स्वरूप को जानने लगते हैं। यह ज्ञान ही विवेकबुद्धि उत्पन्न करता है । विवेकबुद्धि उत्पन्न हो जाने पर पुरुष अपने निलिप्त निस्संग स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ हो पाता है। इसके पश्चात्, ज्ञान के अलावा धर्म, अधर्म आदि सात भावों का प्रभाव जब नष्ट हो जाता है, तव, उसके लिये सृष्टि का कोई अर्थ नहीं रह जाता। प्रकृति, इस उद्देश्य के पूर्ण हो जाने पर विरत हो जाती है । और पुरुष, 'कैवल्य' को प्राप्त कर लेता है। किन्तु, प्रारब्ध कर्मों और पूर्वजन्मों के संस्कारों के कारण, कैवल्य पाते ही शरीर नष्ट नहीं होता; अतः इन कर्मों का भोग कर लेने के बाद, संस्कारों का विनाश हो जाने पर शरीर भी नष्ट हो जाता है। तब, पुरुष को 'विदेह कैवल्य' प्राप्त हो पाता है। यानी विवेकबुद्धि प्राप्त हो जाने पर भी, जीव का शरीर तब तक चलता रहता है, जब तक उसके प्रारब्ध कर्मों का उपभोगपूर्वक क्षय नहीं हो जाता। इसी के बाद, वह निरपेक्ष, साक्षी, द्रष्टा होकर, प्रकृति को देखता हुआ भी उसके बन्धन में फिर से नहीं बंधता।
अद्वैत/शाङ्कर वेदान्त में आत्म-चिन्तन अद्वैत वेदान्त में पारमार्थिक दृष्टि से, एकमात्र तत्त्व 'ब्रह्म', 'आत्मा' है । वह आनन्दस्वरूप वाला है । ब्रह्म से भिन्न अन्य सब कुछ 'अज्ञान'/'माया' कहा गया है । यहाँ पर माया/अवस्तु का ज्ञान आवश्यक
। ताकि 'वस्त' तत्त्व/'आत्मा' 'अवस्त' से पृथक हो सके। अवस्त के ज्ञान के बिना. मन-वाणी से अगोचर वस्तु/आत्मा का ज्ञान सामान्य जनों को नहीं हो पाता।
शाङ्कर वेदान्त में ब्रह्म के अलावा अन्य सारे पदार्थ 'असत्' हैं। इन सब का आरोप ब्रह्म में टोता है। यानी. इस आरोप का अधिष्ठान आधार 'ब्रह्मा' होता है। माया. अपनी विक्षेप शक्ति के द्वारा जो सर्जना करती है, वह मायिक/भ्रान्त होती है। ब्रह्मरूप अधिष्ठान से जो जितने भी कार्य होते हैं, सिर्फ वे ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म का ही 'विवर्त' है, यह माना गया है।
चैतन्य के दो रूप--सर्वव्यापी चेतन ब्रह्म, एक निविशेष तत्त्व के रूप में माना गया है। इसके स्वरूप के दो प्रकार बतलाये गये हैं--(१) चैतन्यरूप (२) माया/उपाधिरूप। इन दोनों रूपों से ही आकाश आदि की सृष्टि होती है । इस सृष्टि में, जब उपाधियुक्त चैतन्य की प्रधानता होती है, तब सृष्टि का निमित्त कारण चैतन्य होता है । और जब माया रूप उपाधि की प्रधानता होती है, तब माया उपाधि विशिष्ट चतन्य को सष्टि का उपादान कारण माना जाता है।
____ जीवस्वरूप-यहाँ विज्ञानमय कोष से आवृत चैतन्य को 'जीव' पद से कहा गया है । चैतन्य, चूंकि - व्यापक, निष्क्रिय, विभु और सर्वत्रस्थित माना गया है। उसमें गमन-आगमन आदि क्रियायें नहीं होती।
इसलिये यहाँ, वस्तुतः विज्ञानमय कोश ही चैतन्य की सहायता से इह/परलोक को प्राप्त होता है। यही जीवात्मा कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुःखी होता है । बद्ध होने से, यही मुक्ति को प्राप्त करता है।
अद्वैत दर्शन में जीवात्मा और परमात्मा का तादात्म्य स्वीकार किया गया है। उपाधि बल से दोनों में जो भेद है, वह कल्पित है। इस उपाधि के नष्ट हो जाने पर, जीवात्मा अपना स्वरूप प्राप्त कर लेता है। यही तो ब्रह्म/परमात्मा का स्वरूप है । 'तत्त्वमसि' इस महावाक्य के द्वारा, यही सब भली-भाँति बतलाया गया है।
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50. सांख्य कारिका-37
51. सांख्य कारिका-65 52. सच्चिदानन्दं ब्रह्म, आनन्दं ब्रह्मणो विद्यात् ।
भारतीय दर्शनों में आत्म-तत्त्व : डॉ० एम० पी० पटैरिया | १३
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