________________
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ),
उपस्थिति रहती है। इन तमाम गुणों का शुद्ध स्वरूप में अभाव होने पर भी, उसमें सिर्फ 'बहुत्व' कैसे घटित हो सकता है ? अतः 'पुरुषबहुत्वं सिद्ध का अर्थ/आशय, यही लिया जाना चाहिए कि जन्म-मरण आदि की अपेक्षा से, त्रैगुण्य विपर्यय की अपेक्षा से बद्ध/सांसारिक पुरुष ही बहुत्व को प्राप्त होता है।
सांख्यदर्शन में पुरुष को अनादि अविद्या के संसर्ग से, अनादिकाल से बद्ध माना गया है। इसीलिए वह शरीरी होता है। इसी की संज्ञा 'पुरुष' है। इसी के लिये 'बहुत्व' विशेषण प्रयोग किया जाता है । इसी का प्रत्यक्ष होता है; और अनुमान द्वारा ग्रहण करने के लिये 'संघात परार्थत्वात्' आदि पाँच हेतु बतलाये गये हैं। न कि प्रत्यक्ष से अगम्य, शुद्ध स्वरूप के ग्रहण के लिये । अतः 'पुरुषबहुत्वं सिद्ध' पद से ईश्वरकृष्ण का अभिप्राय बद्ध पुरुष के बहुत्व से है, यही मानना चाहिए।
'ज्ञ' की विविधता--श्रीमद्भगवद्गीता की तरह, सांख्यदर्शन में भी पुरुष का त्रैविध्य माना गया है । ये तीनों रूप हैं-१. निर्लिप्त-'ज्ञ', २.बद्धपुरुष-जीवात्मा, और ३. मुक्तात्मा। तत्त्वकौमुदी के मंगलाचरण में पं० वाचस्पति मिश्र ने यही कहा है
अजाये तां जुषमाणां भजन्ते जहत्येनां भुक्तभोगां नुमस्तान् । यहाँ पर मिश्र महोदय ने बहुवचन के प्रयोग से बद्धमुक्त दोनों का बहुत्व माना है। बद्ध आत्माएँ, अनादिकाल से संसार में हैं। यदि सभी आत्माएँ बंधी ही रह जायें, तो निलिप्त' 'त्रिगुणातीत' जैसे विशेषण शब्दों के प्रयोग का अर्थ/आशय क्या लिया जायेगा ?
सांख्यों की मान्यता के अनुसार, मुक्त अवस्था में भी, पुरुष सत्त्वगुण से अछूता नहीं रहता है । इसलिए मुक्तावस्था में भी इन्होंने 'पुरुष' की परस्पर भिन्नता मानी है। यह मान्यता स्पष्ट करती है कि जिसे 'निलिप्त' और 'त्रिगुणातीत' स्वभाव वाला कहा गया है, वह बद्ध मुक्त अवस्थाओं से भिन्न, तीसरी, शुद्ध अवस्था वाला 'ज्ञ' ही हो सकता है। इस तरह सांख्यदर्शन में बद्ध सांसारिक और मुक्त आत्माओं का बहत्व, तथा शुद्ध स्वरूप वाले 'ज्ञ' का एकत्व माना जाना, स्पष्ट परिलक्षित होता है। इन तीनों प्रकारों/ स्वरूपों का स्वतंत्र अस्तित्व है। जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सांख्यदर्शन में बद्ध, मुक्त और शुद्ध स्वरूप में ज्ञ पुरुष का त्रैविध्य माना गया है।
जो शुद्ध स्वरूप वाला ज्ञ/पुरुष है, उसमे अलिङ्गत्व, निरवयवत्व, स्वतन्त्रत्व, अत्रिगुणत्व, विवेकित्व, अविषयत्व, असामान्यत्व, चेतनत्व, अप्रसवमित्व, साक्षित्व, कैवल्य, माध्यस्थ्य, औदासीन्य, द्रष्ट्रत्व, अकर्तृत्व आदि सभी धर्म/गुण उसके निर्लिप्त होने पर ही सिद्ध हो पाते हैं ।
पुरुष का बन्ध–सांख्य पुरुष स्वभाव से निलिप्त निस्संग, त्रिगुणातीत, नित्य है। अविद्या भी नित्य है और इन दोनों का संयोग भी नित्य है। अविद्या प्रकृति जडस्वरूप है। इसमें पुरुष का प्रतिबिम्ब जब भी प्रतिभासित होने लगता है। जिससे वह निष्क्रिय, निलिप्त, निस्वैगुण्य होने पर भी कर्ता, भोक्ता और आसक्त जैसा जान पड़ता है। प्रकृति-पुरुष के इस आरोपित-स्वरूप को ही सांख्यों ने 'बन्ध' माना है।
बन्ध-विच्छेद-प्रकृति/पुरुष दोनों को ही अपने-अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाना, सांख्यदर्शन में बन्ध का अभाव/विच्छेद माना गया है । इसी को 'विवेक बुद्धि' भी कहा गया है। यही पुरुष की 'मुक्ति' है । इसकी प्रक्रिया निम्नलिखित तरह से समझी जा सकती है :
१२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
Marcional