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MASTILalरन पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
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'अहिंसा यह कभी नहीं सिखाती कि अन्यायों को सहन किया जाय, क्योंकि अन्याय करना अपने आप में पाप है और अन्याय को कायर होकर सहन करना महापाप है, जिसमें अन्याय के प्रतिकार की शक्ति नहीं है, वह अहिंसा नाम मात्र की अहिंसा है।'
स्याद्वाद जैन दर्शन की आत्मा है । जैन मनीषियों ने स्याद्वाद को समझाने के लिए विशाल ग्रन्थों का निर्माण किया है । आगम युग से लेकर आगमेतर युग तक इस पर चिन्तन हुआ है। उस गहन चिन्तन को महासती पुष्पवतीजी ने अपने निबन्ध में बहुत ही सरल शब्दों में प्रकाश डाला है । स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में क्या अन्तर है ? उसे भी उन्होंने स्पष्ट किया। हम यहाँ उनके निबन्ध का अवतरण प्रस्तुत कर रहे हैं-"अनेकान्तवाद एक दृष्टि है, एक विचार है। विचार जगत का अनेकान्तवाद जव वाणी में उतरता है, तब वह स्याद्वाद कहलाता है। स्याद्वाद में स्याद् शब्द का अर्थ है-अपेक्षा या दृष्टिकोण और वाद शब्द का अर्थ है-सिद्धान्त या प्रतिपादन। दोनों शब्दों से मिलकर बने हए प्रस्तुत शब्द स्याद्वाद का अर्थ हुआ किसी वस्तु, धर्म, गुण या घटना आदि का किसी अपेक्षा से कथन करना । स्याद्वाद का अपर नाम अपेक्षावाद भी है, जिसका अर्थ है-प्रत्येक वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करना।'
'प्रत्येक पदार्थ में अनेक धर्म हैं, उन सभी धर्मों का यथार्थ परिज्ञान तभी संभव है, जब अपेक्षा दृष्टि से विचारा जाय । दर्शन शास्त्र में नित्य-अनित्य, सत्-असत्, एक-अनेक, भिन्न-अभिन्न, वाच्य-अवाच्य आदि तथा लोक व्यवहार में-स्थुल-सूक्ष्म, स्वच्छ-मलिन, मूर्ख-विद्वान, छोटा-बड़ा आदि ऐसे अनेक धर्म हैं जो सापेक्षिक है। जब हम उन धमों में से किसी एक धर्म का कथन करना चाहेंगे तो अपेक्षादृष्टि से ही संभव है । क्योंकि कोई भी एक शब्द वस्तु के सम्पूर्ण धर्मों को अभिव्यक्त नहीं कर सकता। अतः वभिन्न शब्दों के माध्यम से ही विभिन्न धर्मों का प्रतिपादन किया जा सकता है।"
अपेक्षा दृष्टि से विश्व के समस्त पदार्थ एक और अनेक रूप हैं। उनमें एक ओर नित्यत्व के दर्शन होते हैं, तो दूसरी तरफ अनित्यत्व के । वस्त के ध्र व तत्त्व की ओर जब दृष्टि वस्तु के शाश्वत सौन्दर्य के संदर्शन होते हैं और उत्तर-गुणों की ओर दृष्टिपात करने पर प्रतिपल-प्रतिक्षण परिवर्तित रूप दिखलाई देता है। आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में- "जब हमारी दृष्टि भेद-गामिनी बनती है, तब वस्तु का परिवर्तित होने वाला रूप सामने आता है, और जब दृष्टि अभेदगामिनी बनती हैं, तब वस्तु का अखण्ड रूप दृष्टि पथ में आता है। जब हम आत्मा के अभेदरूप का चिन्तन करते हैं, तब अनन्त-अनन्त आत्माओं में एक आत्म-तत्त्व के दर्शन होते हैं, और भेद दृष्टि से चिन्तन करने पर एक ही आत्मा में अनेक पर्याय दिखलाई देती हैं। दार्शनिक शब्दों में "भेदगामिनी दृष्टि पर्यायदृष्टि है और अभेदगामिनी दृष्टि द्रव्यार्थिक दृष्टि है।" ।
महासती पुष्पवतीजी ने विविध विषयों पर निबंध लिखे हैं । वे निबंध उनके गम्भीर चिन्तन को उजागर करते हैं । वे गम्भीर अध्ययनशीला हैं । उन्हें लोक संस्कृति का, धर्म और दर्शन का गम्भीर परिज्ञान है । उन्होंने ज्ञान को प्रज्ञा के स्तर पर आत्मसात किया है। वे नवीनता और प्राचीनता की विचारधारा को इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं, मानो सेतु हों । धर्म और संस्कृति के नाम पर पलने वाले अन्ध विश्वासों और प्रतिगामी रूढ़ियों का दृढ़ता के साथ विरोध करती हैं और समीचीनता को ग्रहण करने के लिए अपने निबंधों में प्रेरणा प्रदान करती हैं। उनके निबंध साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि महासतीजी ने जीवन के शाश्वत तथ्यों पर प्रकाश डाला है।
२०८ | तृतीय खण्ड : कृतित्व दर्शन
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