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निबन्ध उस गद्य रचना को कहते हैं, जिसमें परिमित आकार के भीतर किसी विषय का वर्णन अथवा प्रतिपादन अपने विशेष निजपन, स्वतन्त्रता, सौष्ठव, सजीवता, आवश्यक संगति और सभ्यता के साथ किया गया हो । स्वाभाविक रूप से अपने भावों को प्रगट कर देना निबंधकार की सफलता होती है । आपने दोनों ही प्रकार के निबंध लिखे हैं । आपके विचारात्मक निबंधों में विवेचनात्मक और गवेपणात्मक ये दोनों ही प्रकार की विधाएँ सम्मिलित हैं । आपके निबंधों की शैली सरल, सरस और सुगम हैं । आपके निबंध समय-समय पर अभिनन्दन ग्रन्थों में तथा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं तथा बहुत सारे निबंध अप्रकाशित हैं । यहाँ हम आपश्री के निबंधों के कुछ उद्धरण प्रस्तुत कर रहे हैं।
अहिंसा को जैन दर्शन का प्राणतत्त्व कहा है । आपने अहिंसा पर चिन्तन करते हुए लिखा हैअहिंसा जैन धर्म का प्राण तत्त्व है । विश्व के सभी धर्मों ने अहिंसा पर गहरा चिन्तन किया है। किन्तु अहिंसा का जैसा सूक्ष्म विवेचन और गहन विश्लेषण जैन साहित्य में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र नहीं है । जैन संस्कृति की प्रत्येक साधना में अहिंसा की भावना परिव्याप्त है । उसके प्रत्येक स्वर में अहिंसा की मधुर ध्वनि मुखरित है । जैन संस्कृति की प्रत्येक क्रिया अहिंसामूलक है । चलना फिरना, उठना, बैठना, शयन करना आदि सभी में अहिंसा का नाद ध्वनित हो रहा है । विचार में उच्चार में और आचार में सर्वत्र अहिंसा की सुमधुर झंकार है । भगवान महावीर ने अहिंसा का उत्कर्ष बतलाते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा—जैसे जीवों का आधार स्थान पृथ्वी है, वैसे ही भूत, यानी प्राणियों के जीवन का आधार स्थान शान्ति-अहिंसा है । अहिंसा जीवन का श्रेष्ठ संगीत है । जब यह संगीत जन-जन के मन में झंकृत होता है, तब मानव-मन आनन्द में झूमने लगता है, यही कारण है कि सुदूर अतीत साधक इसकी साधना और आराधना करते रहे हैं ।
काल से ही M
कुछ विचारकों का यह मन्तव्य रहा है कि जैनदर्शन के अनुसार अहिंसा निष्क्रिय है । उस विचार का खण्डन करती हुई लेखिका ने अपने निबंध में लिखा है- 'जैन दर्शन की अहिंसा निष्क्रिय अहिंसा नहीं है, वह विध्यात्मक है । उसमें विश्व बन्धुत्व और परोपकार की भावना उछाले मार रही है । जैन धर्म की अहिंसा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और विस्तृत रहा है । उसका आदर्श जीओ और जीने दो तक ही सीमित नहीं है, किन्तु उसका आदर्श है दूसरों के जीने में सहयोगी बनो । अवसर आने पर दूसरों जीवन की रक्षा के लिए अपने प्राणों को भी न्यौछावर कर दो ।'
उन्होंने इस भ्रान्ति का भी निराकरण किया है कि अहिंसा कायरता है । उन्हीं के शब्दों में देखिये "कितने ही लोगों की भ्रान्त धारणा है कि अहिंसा कायरता का प्रतीक है, वह देश को परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ती है और कर्म क्षेत्र में आगे बढ़ने से रोकती है । पर उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि अहिंसा कायरता नहीं, अपितु वीरता सिखाती | अहिंसा वीरों का धर्म है । अहिंसा का यह वज्र आघोष है - मानव ! तू अपनी स्वार्थ-लिप्सा में डूबकर दूसरे के अधिकार को न छीन । किसी भी देश या राष्ट्र के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न कर । किसी भी समस्या का समाधान शान्ति पूर्वक कर । इतने पर भी यदि समस्या का सम्यक् समाधान नहीं हो रहा है और देश, जाति या धर्म की रक्षा करना अनिवार्य हो तो उस समय वीरता परक कदम उठा सकते हो, किन्तु अहिंसा के नाम पर कायर बनकर घर में मुंह छिपाकर बैठना उचित नहीं है । अपने प्राणों का मोह कर कायर मत बनो ! किन्तु समय पर अन्याय, अत्याचार का प्रतिकार करो, यदि उस समय तुमने कायरतापूर्ण व्यवहार किया तो वह अहिंसा नहीं, आत्म-वंचना है ।
सृजनधर्मी प्रतिभा की धनी महासती पुष्पवतीजी | २०७
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